गीत सावन के

तुम्ही बतलाओ गाऊं किस तरह मैं गीत सावन के

हवा की पालकी पर बैठ आया पतझरी मौसम
विरह के मरुथलों में आस की बदली गई हो गुम
पलक पर से फिसलते रह गये बस पांव सपनों के
गई खो क्रन्दनों के शोर में आल्हाद की सरगम

अधर पर आये भी तो शब्द आये सिर्फ़ अनबन के

लपेटे हैं खड़ीं अमराईयां बस धुन्ध की आँचल
भटकती ले पता इक हाथ में पगड्म्डियां पागल
न ओढ़े सूर्यबदनी रश्मियां घूँघट घटाओं का
न फ़ैला है गगन के मुख अभी तक रात का काजल

अभी जागे नहीं हैं नींद से दो बोल कंगन के

जवा के रंग से बिछुड़ा अलक्तक है पड़ा गुनसुन
न बेला है न जूही है, न दिखता है कोई विद्रुम
हिनाई उंगलियां छूती नहीं हैं आँख का काजल
न बोले चूड़ियां बिछवा न करता बात भी कुंकुम

सुनाई दे रहे स्वर बस हवा की एक सन सन के

दिशाओं के झरोखों में न लहरे हैं अभी कुन्तल
जलद की वीथियों में दामिनी दिखती नहीं चंचल
न पैंगें ले रहीं शाखें कहीं पर नीम पीपल की
न छलकी है गगन के पंथ में यायावरी छागल

न होठों पर हैं मल्हारें, न हैं पगशोर ही घन के

न धागे ही बँधे अब तक किसी सूनी कलाई में
सजे टीके न माथे पर श्वसुर घर से विदाई में
खनकती दूरियां केवल, न खनके चूड़ियां कँगना
न बूँदों के दिखे मोती घटा की मुँह दिखाई में

अपरिचित स्पर्श तन से हैं अभी बरखा के चुम्बन के

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...