व्यर्थ में आँसुओं को न अपने बहा
आँसुओं को सुमन कर अधर पर खिला
पीर अपनी प्रकाशित करे भी अगर
कोई पाठक नहीं पा सकेगा यहां
अजनबी दौर है, अजनबी लोग हैं
बोलता है नहीं कोई तेरी जुबां
भावनाओं की बारीकियाँ जान ले
इस सभागार में कोई ऐसा नहीं
कोशिशें करते थक जायेगा नासमझ
पत्थरों पर भला दूब जमती कहीं
तू बना कर हॄदय को शिखा दीप की
अपनी तारीकियों में उजाले जगा
सीप में मोतियों से, उगा कर कमल
तू नयन में बिठा एक कमलासनी
जब भी छलके कलश, तो हो अभिषेक को
व्यर्थ ही न बहा अपनी मंदाकिनी
सींच विश्वास की पौध को हर घड़ी
आस्था की उगा ले नई कोंपलें
एक संकल्प की छाँह रख शीश पर
रेत के तू घरों पर न कर अटकलें
छाई निस्तब्धता की थकन तोड़कर
प्रीत की पेंजनी के सुरों को जगा
ज़िन्दगी के अधूरे पड़े पॄष्ठ पर
लिख नये अर्थ लेकर कहानी नई
दर्द की थेगली पर बना बूटियाँ
चाह लिख जिसमें मीरा दिवानी हुई
खोल नूतन क्षितिज,घोष कर शंख का
अपनी सोई हुई मीत, क्षमता जगा
नभ के विस्तार को बाँह में थाम ले
देख रह जाये तुझको, ज़माना ठगा
राह खुद मंज़िलों में बदल जायेगी
हो कदम जो तेरा निश्चयों से भरा
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2 comments:
राह खुद मंज़िलों में बदल जायेगी
हो कदम जो तेरा निश्चयों से भरा
अच्छा लगा
कितना गहरा गीत ! मन में बहुत देर तक रहने वाला. प्रश्न जगाने वाला.
एक प्रश्न ये: जिस सभागार में कोई बात ही ना समझे वहाँ गीत ही क्यों गाया जाए?
कौन सा विश्वास हो, क्या संकल्प हो, किस पे आस्था हो ? प्रीत पे, मानवता पे, उपलब्धि पे?
गीत कहता है अपनी पीर ना लिख, अपनी पीर के क्षितिज से आगे बढ़ . . . दूसरों की पीर देख, दूसरों का त्याग देख, उनके दर्द में सुन्दरता भर! फ़िर गीत ये क्यों कहता है कि ज़माना ठगा रह जायेगा? जो दूसरों की पीर समझे, अपने को भूल कर औरों के गीत गाए, उसे ज़माने से क्या ? ये सभागार तो उसके लिए अब भी वही ढाक के तीन पात है ...
और ये सब बड़ी बड़ी बातें... क्या ये प्रेक्टिकल है?
सादर,
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