अंतिम गीत

विदित नहीं लेखनी उंगलियों का कल साथ निभाये कितना
इसीलिये मैं आज बरस का अंतिम गीत लिखे जाता हूँ

चुकते हुए दिनों के संग संग
आज भावनायें भी चुक लीं
ढलते हुए दिवस की हर इक
रश्मि, चिरागों जैसे बुझ ली
लगी टिमटिमाने दीपक की
लौ रह रह कर उठते गिरते
और भाव की जो अँगड़ाई थी,
उठने से पहले रुक ली

पता नहीं कल नींद नैन के कितनी देर रहे आँगन में
इसीलिये बस एक स्वप्न आँखों में और बुने जाता हूँ

लगता नहीं नीड़ तक पहुँचें,
क्षमता शेष बची पांवों में
चौपालें सारी निर्जन हैं
अब इन उजड़ चुके गांवों में
टूटे हुए पंख की सीमा
में न सिमट पातीं परवाज़ें
घुली हुई है परछाईं ,
नंगे करील की अब छांहों में

पता नहीं कल नीड़ पंथ को दे पाथेय नहीं अथवा दे
इसीलिये मैं आज राह का अंतिम मील चले जाता हूँ

गीतों का यह सफ़र आज तक
हुआ, कहाँ निश्चित कल भी हो
धुला हुआ है व्योम आज जो,
क्या संभव है यह कल भी हो
सुधि के दर्पण में न दरारें पड़ें,
कौन यह कह सकता है ?
जितना है विस्तार ह्रदय का आज,
भला उतना कल भी हो ?

पता नहीं कल धूप, गगन की चादर को कितना उजियारे
इसीलिये मैं आज चाँद को करके दीप धरे जाता हूँ

5 comments:

Sajeev said...

waah .... shabd kam padh jaate hain tareef ke liye guruvar

नीरज गोस्वामी said...

गीतों का यह सफ़र आज तक
हुआ, कहाँ निश्चित कल भी हो
धुला हुआ है व्योम आज जो,
क्या संभव है यह कल भी हो
वाह ...वाह...वाह...राकेश जी शब्द और भाव का अद्भुत मेल देखने को मिलता है आप की लेखनी में. जब आप की ऐसी रचनाएँ पढने को मिलती हैं तो आप से मुम्बई ना मिल पाने का अवसाद और भी गहरा हो जाता है. भाई बहुत...बहुत ...बहुत...खूब.
नीरज

रजनी भार्गव said...

बहुत सुन्दर रचना है,विशेषकर ये पँक्तियाँ,

पता नहीं कल नींद नैन के कितनी देर रहे आँगन में
इसीलिये बस एक स्वप्न आँखों में और बुने जाता हूँ

मीनाक्षी said...

बहुत सुन्दर काव्य ! उच्च भाषाशैली की उत्तम रचना पढ़कर प्रशंसा के शब्द ही नहीं मिलते....

Dr.Bhawna Kunwar said...

बहुत अच्छी रचना के लिये बहुत सारी बधाई...
आपको परिवार सहित नववर्ष की ढेरों मंगलकामनायें...भावना,प्रगीत, कनुप्रिया और एश्वर्या की तरफ से...

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...