जीवन के इस रंगमंच पर

कितने तो अभिनीत हो गये,कितने अब भी अंक बकाये
जीवन के इस रंगमंच पर, निर्देशक क्या क्या दिखलाये

कभी एक किरदार दिखाता, कभी भूमिकायें बदली हैं
कभी धूप वाले रंगों में बो देता काली बदली है
कहां अवनिका पतन करेगा, कब हो पटाक्षेप दॄश्यों पर
क्या है सत्य,गल्प भी क्या है, क्या कॄत्रिम है क्या असली है

मुट्ठी में है लिये राग के आरोहों को अवरोहों को
न जाने किस सरगम को वो किस साजिन्दे से बजवाये

कभी दर्शकों में से चुन लेता है मुख्य मुख्य अभिनेता
कभी प्राथमिकता देता है फिर नेपथ्यों में रख देता
कभी मिलन की बांसुरिया को कर देता है रुदन विरह का
कभी डालता है भ्रम में तो कभी दिशायें नूतन देता

कथा,पटकथा या मध्यांतर सब पर पूर्ण नियंत्रण उसका
कलम उसी की.भाव उसी के कब जाने क्या क्या लिख जाये

अपने अपने पात्र निभाते रहना है सबकी मज़बूरी
किसे विदित सज्जा कक्षों से कितनी रही मंच की दूरी
किस चरित्र को किस सांचे में ढलना है ये वही जानता
किस को खारिज कर देना है, किसको दे देनी मंजूरी

शतरंजी इस रंगमंच पर शातिर बड़ा खिलाड़ी है वो
प्यादों को करता वज़ीर है, वह ही शाहों को पिटवाये

3 comments:

राजीव रंजन प्रसाद said...

राकेश जी,

आपके गहरे दर्शन और गीत विधा पर आपकी महारत का कोई सानी नहीं

अपने अपने पात्र निभाते रहना है सबकी मज़बूरी
किसे विदित सज्जा कक्षों से कितनी रही मंच की दूरी
किस चरित्र को किस सांचे में ढलना है ये वही जानता
किस को खारिज कर देना है, किसको दे देनी मंजूरी

शतरंजी इस रंगमंच पर शातिर बड़ा खिलाड़ी है वो
प्यादों को करता वज़ीर है, वह ही शाहों को पिटवाये

अध्भुत..

*** राजीव रंजन प्रसाद

अमिताभ मीत said...

किस किस बात की तारीफ़ हो भाई ! बस छा जाते हैं आप. कमाल है.

कंचन सिंह चौहान said...

waah waah ..jivan ka satya darshan..Shakespeare ki philosophy ka hindi anuvaad...

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