किरणों ने तम की चादर धोने की कसम उठा डाली है

लौट गईं सागर की लहरें जब तट से टकरा टकरा कर
मौन हुए स्वर गिरजों मस्जिद मंदिर में स्तुतियाँ गाकर
थके परिंदों ने नीडों में अम्बर का विस्तार  समेटा
स्वप्न ताकते रहे नयन की चौखट जब रह रह अकुलाकर
तब सीने में छुपी एक चिंगारी ज्वाला बन कर भड़की
और तुष्टि की परिभाषाएं सहसा सभी बदल डाली हैं

पग के तले बिछी सिकता भी अपना रूप बदल लेती है
एक सहारा बही हवा का मिले भाल पर चढ़ जाती है
यद्यपि सहन शक्ति की सीमा अन देखी है अनजानी है
लेकिन एक मोड़ पर वह भी सारे बंध तोड़ जाती है

प्राची की चौखट से थोड़ा पहले जो थी तनी रही थी
किरणों ने तम की चादर धोने की कसम उठा डाली है

रक्तबीज का अंत सुनिश्चित, मुंह फैलाया चामुंडा ने
महिशामर्दिनी  हुई चेतना उठी नींद से ले हुंकारें
गिरा शुम्भ अस्तित्वविहिना,धराशायी होता निशुम्भ भी
युद्ध भूमि बन गए घ५रों की पायल बन कटार झंकारें

एक चेतना जो अलसाई सोई रही कई बरसों से
आज उठी तो रूप बदल बन आई बनी महाकाली है


जरासंध की सत्ता हो या मधु कैटभ हो नरकासुर हो
शोषक का अस्तित्व पलों की गिनती तक ही तो टिक पाता
तप अभाव के अंगारों में विद्रोही बन उठता कुन्दन
और निखर उठने पर उसके फिर प्रतिबन्ध नहीं लग पाता

गिरे शाख से फूल पुन: चढ़ डाली पर खिलने लगते हैं
जिस बगिया में स्वार्थपरक ही होकर रह जाता माली है

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

किरणों की कसम पूरी होगी, तम भाग जायेगा।

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