कोई श्रृंगार के गीत लिखता रहा
चाँदनी में डुबो कर कलम रात भर
शाख ले एक निशिगंध की छेड़ता
था रहा रागिनी इक नई रात भर
बन के श्रोता रहा चाँद था सामने
तालियाँ खूब तारे बजाते रहे
चंद बादल मगन हो गए यों लगा
जो इधर से उधर डगमगाते रहे
एक नीहारिका बन गई अंतरा
सामने आ संवरते हुए गीत का
राशियों ने सहज मुस्कुराते हुए
नाम अंकित किया गीत पर प्रीत का
ओस झरती हुई, गंध पीती हुई
स्याहिया बन के ढलती रही रात भर
कल्पना के पखेरू खड़े आ हुये
पार खिड़की के थे विस्मयों में भरे
कुछ सपन नभ की मंदाकिनी से उतर
बूँद बन पृष्ठ पर सामने आ गिरे
बिम्ब में से छलक एक सौगंध ने
एक पर्याय सम्बन्ध का लिख दिया
और अनुबंध की उँगलियों में रचा
एक बूटा हिना का तुरत रख दिया
भोर की राह को भूल बैठा रहा
भोर का इक सितारा यहीं रात भर
सुनते प्राची हुई तन्मयी इस तरह
द्वार खोले नहीं थे उषा के लिये
सारे पाखी बने एक प्रतिमा रहे
होके अभिमंत्रिता,सरगमों को पिये
मौन हो आरती के सुरों ने रखीं
गीत सुनते हुये होंठ पर उंगलियाँ
सूर्य को अपने भुजपाश में बाँध कर
आँख मूँदे रहीं व्योम की खिड़कियाँ
दूर फ़ैला क्षितिज कंठ देती रही
शब्द में बिजलियों को भरे रात भर