देखती है नजर

उंगलियां तार झंकारते थक गईं
मन की वीणा पे सरगम न संवरे मगर
जब से संभले कदम हैं निरन्तर चले
तय न हो पाया लेकिन तनिक भी सफ़र

खेत खलिहान पगडंडियां वावड़ी
झूले गाते हुए नीम की डाल के
बातें पनघट से करती हुईं गागरें
और किस्से ढली सांझ चौपाल के
लपलपाती लपट के लरजते हुए
साये में चित्र सपनों के बनते हुए
पीपलों पर टँगी आस को थाम कर
कुछ सितारे धरा पर उतरते हुए
जानता हूँ कि बीती हुई बात है
किन्तु रह रह यही देखती है नजर

सायकि्लों की खनकती हुई घंटियाँ
टेर गलियों में ग्वाले की लगती हुई
मोड़ पर नानबाई की दूकान से
सोंधी खुशबू हवाओं में तिरती हुई
ठनठनाते हुए बर्तनों की ठनक

और ठठेरे का रह रह उन्हें पीटना
पहली बारिश के आते उमंगें पकड़
छत पे मैदान में मेह में भीगना
चित्र मिटते नहीं हैं हॄदय पर बने
वक्त की साजिशें हो गईं बेअसर

आरज़ू हाथ आयें पतंगें कटी
कंचे रंगीन हों पास डब्बा भरे
गिल्ली डंडे में कोई भी सानी न हो
गेंदबाज़ी में हर कोई पानी भरे
चाहतें उंगलियों पे गिनी थी हुईं
और संतोष था एक मुट्ठी भरा
मित्र सब ही कसौटी पे थे एक से
न खोटा था कोई न कोई खरा
ढूँढ़ता हूँ मैं गठरी पुरानी, मिले
रख दिया हो किसी ने उसे ताक पर.

होली

न बजती बाँसुरी कोई न खनके पांव की पायल
न खेतों में लहरता जै किसी का टेसुआ आँचल्
न कलियां हैं उमंगों की, औ खाली आज झोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है

हरे नीले गुलाबी कत्थई सब रंग हैं फीके
न मटकी है दही वाली न माखन के कहीं छींके
लपेटे खिन्नियों का आवरण, मिलती निबोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है

अलावों पर नहीं भुनते चने के तोतई बूटे
सुनहरे रंग बाली के कहीं खलिहान में छूटे
न ही दरवेश ने कोई कहानी आज बोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है

न गेरू से रंगी पौली, न आटे से पुरा आँगन
पता भी चल नहीं पाया कि कब था आ गया फागुन
न देवर की चुहल है , न ही भाभी की ठिठोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है

न कीकर है, न उन पर सूत बांधें उंगलियां कोई
न नौराते के पूजन को किसी ने बालियां बोईं
न अक्षत देहरी बिखरे, न चौखट पर ही रोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है

न ढोलक न मजीरे हैं न तालें हैं मॄदंगों की
न ही दालान से उठती कही भी थाप चंगों की
न रसिये गा रही दिखती कहीं पर कोई टोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है

न कालिंदी की लहरें हैं न कुंजों की सघन छाया
सुनाई दे नहीं पाता किसी ने फाग हो गाया
न शिव बूटी किसी ने आज ठंडाई में घोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है.

जैसे छंद गीत में रहता

जैसे छंद गीत में रहता, मंदिर में रहता गंगाजल
मीत बसे हो तुम कविता में लहराते सुधियों का आँचल

बच्चन ने तुमको देखा तो निशा निमंत्रण लिख डाला था
रूप सुधा पीकर दिनकर ने काव्य उर्वशी रच डाला था
कामायनी उदित हो पाई सिर्फ़ प्रेरणा पाकर तुमसे
प्रिय-[रवास का मधुर सोमरस तुमने प्यालों में ढाला था
एक तुम्हारी छवि है अंकित काव्यवीथियों के मोड़ों पर
बसी हुई कल्पना सरित में बसा नयन में जैसे काजल

मन के मेरे चित्रकार की तुम्ही प्रिये कूची सतरंगी
तुम अषाढ़ का प्रथम मेघ हो, तुम हो अभिलाषा तन्वंगी
तुम कलियों का प्रथम जागरण,तुम हो मलयज की अँगड़ाई
तुम दहले पलाश सी, मन में छेड़ रहीं अभिनव सारंगी
पा सान्निध्य तुम्हारा, पूनम हो जाती है, मावस काली
खनक रही मेरे गीतों में मीत तुम्हारे पग की पायल

तुम गीतों का प्रथम छंद हो, तुम उन्वान गज़ल का मेरी
तुमने मेरे शिल्पकार की छैनी बन प्रतिमायें चितेरी
वेद ॠचा के गुंजित मंत्रों का आव्हान बनी तुम प्रतिपल
तुमने आशा दीप जला कर ज्योतित की हर राह अंधेरी
तुम गायन की प्रथम तान हो, तुम उपासना हो साधक की
बासन्ती कर रहा उमंगें शतरूपे यह धानी आँचल

जैसे छंद गीत में रहता, मंदिर में रहता गंगाजल
मीत बसे हो तुम कविता में लहराते सुधियों का आँचल

आस्था

हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा
मान्यता दी बिठा बरगदों के तले
भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे
घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले
धूप अगरू की खुशबू बिखेरा किये
और गाते रहे मंगला आरती
हाथ के शंख से जल चढ़ाते रहे
घंटियां साथ में लेके झंकारती

भाग्य की रेख बदली नहीं आज तक
कोशिशें सारी लगता विफल हो गईं
आस भरती गगन पर उड़ानें रही
अपने आधार से कट विलग हो गई

शास्त्रों में लिखे मंत्र पढ़ते हुए
आहुति यज्ञ में हम चढ़ाते रहे
देवताओं को उनका हविष मिल सके
नाम ले ले के उनको बुलाते रहे
अपने पितरों का आशीष सर पर रखे
दीप दोनों में रख कर बहाया किये
घाट काशी के करबद्ध होकर खड़े
अपने माथे पे चन्दन लगाया किये

आँजुरि में रखे फूल मुरझाये पर,
पांखुरी पांखुरी हो तितर रह गई

हमने उपवास एकादशी को रखे
पूर्णिमा को किये पाठ नारायणी
है पढ़ी भागवत, गाते गीता रहे
हो गये डूब मानस में रामायणी
वेद,श्रुतियां, ॠचा, उपनिषद में उलझ
अर्थ पाने को हम छटपटाते रहे
धुंध के किन्तु बादल न पल भर छंटे
हर दिशा से उमड़ घिरते आते रहे

होती खंडित, रही आस्था पूछती
कुछ पता? ज़िन्दगी यह किधर बह गई

राकेश खंडेलवाल

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...