मेरे भेजे हुए सन्देशे

तुमने कहा न तुम तक पहुँचे मेरे भेजे हुए संदेसे
इसीलिये अबकी भेजा है मैने पंजीकरण करा कर
बरखा की बूँदों में अक्षर पिरो पिरो कर पत्र लिखा है
कहा जलद से तुम्ह्रें सुनाये द्वार तुम्हारे जाकर गा कर

अनजाने हरकारों से ही भेजे थे सन्देसे अब तक
सोचा तुम तक पहुँचायेंगे द्वार तुम्हारे देकर दस्तक
तुम्हें न मिले न ही वापिस लौटा कर वे मुझ तक लाये
और तुम्हारे सिवा नैन की भाषा कोई पढ़ न पाये

अम्बर के कागज़ पर तारे ले लेकर्के शब्द रचे हैं
और निशा से कहा चितेरे पलक तुम्हारी स्वप्न सजाकर

मेघदूत की परिपाटी को मैने फिर जीवंत किया है
सावन की हर इक बदली से इक नूतन अनुबन्ध किया है
सन्देशों के समीकरण का पूरा है अनुपात बनाया
जाँच तोल कर माप नाप कर फिर सन्देसा तुम्हें पठाया

ॠतुगन्धी समीर के अधरों से चुम्बन ले छाप लगाई
ताकि न लाये आवारा सी कोई हवा उसको लौटाकर

गौरेय्या के पंख डायरी में जो तुमने संजो रखे हैं
उन पर मैने लिख कर भेजा था संदेसा नाम तुम्हारे
चंदन कलम डुबो गंधों में लिखीं शह्द सी जो मनुहारें
उनको मलयज दुहराती है अँगनाई में सांझ सकारे

मेरे संदेशों को रूपसि,नित्य भोर की प्रथम रश्मि के
साथ सुनायेगा तुमको, यह आश्वासन दे गया दिवाकर

किसलिये मैं गीत गाऊँ

किसलिये मैं गीत गाऊं, किस तरह मैं गीत गाऊं

खो चुके हैं अर्थ अपना शब्द सारे आज मेरे
दीप की अंगनाई में बढ़ने लगे कुहरे घनेरे
बांसुरी ने लील सरगम मौन की ओढ़ी चुनरिया
नींद से बोझिल पलक को मूँद कर बैठे सवेरे

कंठ स्वर की आज सीमा संकुचित हो रह गई है
और फिर ये प्रश्न भी आवाज़ मैं किसको लगाऊं

भावना का अर्थ क्या है किन्तु कोई क्या लगाता
कौन कितना कथ्य के अभिप्राय को है जान पाता
ढूँढ़ने लगती नजर जब प्रीत में विश्लेषणायें
संचयित अनुराग का घट एक पल में रीत जाता

अजनबियत के अँधेरों में घुली परछाईयों में
कौन सी में रंग भर कर चित्र मैं अपना बनाऊं

मायने बदले हुए सम्बन्ध की सौगन्ध के अब
ज़िन्दगी अध्याय नूतन लिख रही अनुबन्ध के अब
गुलमोहर की ओट में जब खिल रहीं कन्नेर कलियां
हो गये पर्याय रस के गंध के स्वच्छंद ही अब

हाथ की मेंहदी तलाशे चूड़ियों की खनखनाहट
और पायल पूछती है, किस तरह मैं झनझनाऊं

किस तरह मैं गीत गाऊं

मेरे अधरों पर हस्ताक्षर

प्रिये अधर से तुमने अपने जब से किये अधर पर मेरे
हस्ताक्षर, तब से सपनों की बगिया और निखर आई है

आतुर हुई कामना भर ले यष्टि कमल को भुजपाशों में
आकाँक्षायें हैं सांसों की घुलें महक वाली सांसों में
नयनों की पुतली बन रांझा,चित्र हीर के बना रही है
नये रंग में नये रूप के मिले न जैसे इतिहासों में

देह तुम्हारी छूकर आई पुरबाई ने जब से आकर
मुझे छुआ है लगा धरा पर अलकापुरी उतर आई है

लगी जागने भोर रूप की उजली धूप बाँह में लेकर
निशा संवरने लगी घटाओं से लहराते कुन्तल छूकर
नींदों वाली डोर थाम कर लगे झूलने झूला तारे
महकीं डगर, और अलगोजे लगे गूँजने चहुंदिशि भू पर

द्वार तुम्हारे से आ मलयज मेरी गलियों से जब गुजरी
मुझको लगा तुम्हारे नूतन संदेसे लेकर आई है

हुए तिरोहित एक निमिष में मन के मेरे संशय सारे
रातों में आ लगे जलाने दीपक पूनम के उजियारे
नदिया की लहरों सी पल पल लगीं उमड़ने मधुर उमंगें
एक तुम्हारी छवि रहती है बस नजरों में सांझ सकारे

स्वर से उपजी सरगम ने आ जब से छुआ गीत इक मेरा
लगा मुझे मेरे शब्दों में वीणा स्वयं उतर आई है

अन्तराल-विराम

लेखनी ओढ़ निस्तब्धता सो गई, शब्द पर एक ठहराव सा आ गया
हो गया है अपरिचित निमिष हर कोई, गीत बन जो कभी होठ पर छा गया
छंद से , रागिनी, ताल से हो विलग, भाव अभिव्यक्तियों बिन अधूरा रहा
नज़्म के मुक्तकों के गज़ल के सफ़र में लगा एक गतिरोध है आ गया.


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शब्द हैं अनगिनत,भाव का सिन्धु है, किन्तु दोनों में पल न समन्वय हुआ
शब्द थे डूब खुद में ही बैठे रहे, और था भाव अपने में तन्मय हुआ
छन्द छितरा गये, लक्षणा लड़खड़ा, व्यंजना को व्यथायें सुनाती रही
आज अभिव्यक्तियां अपनी असमर्थ है, लीजिये अन्तत: बस यही तय हुआ

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नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...