अधूरी याद

चरखे का तकुआ और पूनी
बरगद के नीचे की धूनी
पत्तल कुल्लड़ और सकोरा
तेली का बजमारा छोरा
पनघट पायल और पनिहारी
तुलसी का चौरा,फुलवारी
पिछवाड़े का चाक कुम्हारी
छोटे लल्लू की महतारी
ढोल नगाड़े, बजता तासा
महका महका इक जनवासा
धिन तिन करघा और जुलाहा
जंगल को जाता चरवाहा
रहट खेत, चूल्हा व अंगा
फ़सल कटे का वह हुड़दंगा
हुक्का पंचायत, चौपालें
झूले वाली नीम की डालें
वावन गजी घेर का लहँगा
मुँह बिचका, दिखलाना ठेंगा
एक पोटली, लड़िया, छप्पर
माखन, दही टँगा छींके पर
नहर,कुआं, नदिया की धारा
कुटी, नांद, बैलों का चारा
चाचा ताऊ, मौसा मामा
जय श्री कॄष्णा, जय श्री रामा
मालिन,ग्वालिन,धोबिन,महरी
छत पर अलसी हुई दुपहरी

एक एक कर सहसा सब ही
संध्या के आँगन में आये
किया अजनबी जिन्हें समय ने
आज पुन: परिचित हो आये
वर्तमान ढल गया शून्य में
खुली सुनहरी पलक याद की
फिर से लगी महकने खुशबू
पूरनमासी कथा पाठ की
शीशे पर छिटकी किरणों की
चकाचौंध ने जिन्हें भुलाया
आज अचानक एकाकीपन, में
वह याद बहुत हो आया.

तुम्हारे नाम वाली

अंधेरे की तराई में चमकते चांद की किरणें
तुम्हारे नाम का दीपक जला कर साथ लाई हैं
बहारों की गली में चल रही अल्हड़ हवाओं ने
तुम्हारे नाम वाली इक गज़ल फिर गुनगुनाई है

चमेली की पंखुरियों पर फिसलते ओस के कतरे
चढ़े कचनार के मुख पर उषा के रंग कुछ गहरे
उमंगो के पिये प्याले है जूही मुस्कुराती सी
नदी की धार गाथायें प्रणय की कुछ सुनाती सी

किनारों पर बिछी सिकता तुम्हारे पांव का कोमल
परस पाकर खुशी में डूब कर फिर थरथराई है

दिवस की मौन पगध्वनियाँ निशा का आगमन हौले
सितारों की गली में स्वप्न अपनी टोकरी खोले
तुम्हारी एक अँगड़ाई घुली है इस तरह जग में
समय भी रुक गया, जंजीर जैसे हो बंधी पग में

प्रकॄति के दर्पणों में आज कोई खिलखिलाती सी
तुम्हारी एक मोहक छवि लगा आकर समाई है

धरा के पॄष्ठ हरितों पर सुखद नीलाभ आमंत्रण
उमड़ते फेन में घिर कर क्षितिज का मूक परिवर्तन
सिहरता वादियों में एक नटखट सा कोई झोंका
शिला के श्रंग पर होता सहज अभिषेक चाहों का

तुम्हारी रूप का श्रंगार लेकर आज जगती ने
लगा है सातरंगी चूनरी फिर से सजाई है

संवरते पेड़ की शाखों पे रंगीं धूप के साये
थिरकते एक सुबह में निमिष यादों के अलसाये
किरण की पालकी के साथ भोपा गायकी के सुर
बजे हों बाऊलों के गीत में ज्यों पांव के नूपुर

घुले सारंगियों में आज अलगोजे लिये सरगम
तुम्हारे ही स्वरों की आज इनको याद आई है

तुम्हारा वॄन्दावन

हर क्षण है बोझिल पीड़ा से, हर धड़कन आंसू की सहचर
फिर भी मेरा मन गाता है बस एक तुम्हारा वॄन्दावन

सुबह की पहली अंगड़ाई, ले साथ वेदना को आई
दिन की पादानों ने रह रह मेरे प्राणों को दंश दिये
सन्ध्या की झोली में सिमटे पतझड़ के फूल और कीकर
बस नीलकंठ बन कर मैने अपने जीवन के अंश जिये

उमड़ी है काली सघन घटा, चंदा तारों का नहीं पता
पर तुम्हें मान कर मेघ परी, दिल करता रहता आराधन

सांसों के हर स्पन्दन में सेही के काँटे सँवर गये
विधि रूप शकुनि का ले खेली जीवन की चौसर छल बल से
कर संधि अमावस से, मेरे आँगन में उतरी नहीं धूप
सपने अपने रह सके नहीं , उड़ गये हवा में बादल से

रह गईं अधूरी सब साधें, अभिलाषा के नूपुर बाँधे
बस एक दिलासा दिल को है तुम साथ मेरे हो जीवन धन

सम्बन्ध टूटते रहे और पल पल पर बढ़ी दूरियां भी
अपनापन हुआ अजनबीपन हर रिश्ते की परिभाषा में
है रहा भीड़ से घिरा हुआ, अस्तित्व मेरा अदॄश्य हुआ
पनघट की देहरी पर बैठा हर बार रहा हूँ प्यासा मैं

दम लगी तोड़ने हर सरगम, स्वर सभी हो गये हैं मद्दम
बस सिर्फ़ सुनाई देती है, तेरी ही पायल की छन छन

अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा

टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं


बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में

पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली

परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें

कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा

बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...