आपके लिये नव वर्ष

हर दिवस हो नये गीत सा छंदमय, सांझ बन कर गज़ल की रवानी रहे
रात डूबी हुई प्रीत की गंध में चांदनी की नई इक कहानी कहे
बात निशिगंध से मिल चमेली करे, औ’ भरे मोगरा बाँह कचनार को
ऐसी छवियों से सज कर उमगती हुई, इस नये वर्ष की ॠतु सुहानी रहे

मुट्ठियों में संवरने लगे आपकी, आपकी कल्पनाओं का विस्तार सब
स्वप्न हर, भोर में प्रश्न करने लगे, नैन में से निकल शिल्प होना है कब ?
इस नये वर्ष में जितने आयाम हैं सब सिमटते रहें आपके द्वार पर
कामना के सुमन की भरी आंजुरि, आपके पगकमल पे चढ़ाता हूँ अब

अंतिम गीत

विदित नहीं लेखनी उंगलियों का कल साथ निभाये कितना
इसीलिये मैं आज बरस का अंतिम गीत लिखे जाता हूँ

चुकते हुए दिनों के संग संग
आज भावनायें भी चुक लीं
ढलते हुए दिवस की हर इक
रश्मि, चिरागों जैसे बुझ ली
लगी टिमटिमाने दीपक की
लौ रह रह कर उठते गिरते
और भाव की जो अँगड़ाई थी,
उठने से पहले रुक ली

पता नहीं कल नींद नैन के कितनी देर रहे आँगन में
इसीलिये बस एक स्वप्न आँखों में और बुने जाता हूँ

लगता नहीं नीड़ तक पहुँचें,
क्षमता शेष बची पांवों में
चौपालें सारी निर्जन हैं
अब इन उजड़ चुके गांवों में
टूटे हुए पंख की सीमा
में न सिमट पातीं परवाज़ें
घुली हुई है परछाईं ,
नंगे करील की अब छांहों में

पता नहीं कल नीड़ पंथ को दे पाथेय नहीं अथवा दे
इसीलिये मैं आज राह का अंतिम मील चले जाता हूँ

गीतों का यह सफ़र आज तक
हुआ, कहाँ निश्चित कल भी हो
धुला हुआ है व्योम आज जो,
क्या संभव है यह कल भी हो
सुधि के दर्पण में न दरारें पड़ें,
कौन यह कह सकता है ?
जितना है विस्तार ह्रदय का आज,
भला उतना कल भी हो ?

पता नहीं कल धूप, गगन की चादर को कितना उजियारे
इसीलिये मैं आज चाँद को करके दीप धरे जाता हूँ

कैसे गीत प्रणय के गाये

ये अम्बर पर घिरी घटाओं में घुलते यादों के साये
ऐसे में अब गीत प्रणय के कोई गाये तो क्या गाये

टूटी हुई शपथ रह रह कर कड़क रही बिजली सी तड़पे
मन के श्याम क्षितिज पर खींचे सुलग रही गहरी रेखायें
भीगी हुई हवा के तीखे तीर चुभें आ कर सीने पर
आलिंगन के घावों की फिर से रह रह कर याद दिलायें

और अकेलापन ऐसे में बार बार मन को हुलसाये
ऐसे में अब गीत प्रणय के गाये भी तो कैसे गाये

बारिश की बून्दों में घुल कर टपक रहे आंखों के सपने
खिड़की की सिल पर बैठे हैं सुधि के भीगे हुए कबूतर
परदों की सिलवट मेम उलझी हुईं इलन की अभिलाषायें
और आस बुलबुलों सरीखी, बनते मिटते रह रह भू पर

उनका फ़ीकापन दिखता है छाये हुए अंधेरे में भी
डूब तूलिका ने आंसू में अब तक जितने चित्र बनाये

झड़ी बने दस्तक देते हैं द्वारे पर आकर ज़िद्दी पल
छँटती नहीं उदासी को ओढ़े जो बैठी है खामोशी
दीवारों पर चलचित्रों सी नर्तित हैं परछाईं धुंधली
और हवायें लगता खुद से ही करती रहतीं सरगोशी

कोरा कागज़ पड़ा मेज पर बिन बोले मुंह को बिचकाये
ऐसे में अब गीत प्रणय को कैसे तुम बतलाओ गाये

बस पंथ थम गया

पांव हमारे ही अक्षम थे
उठे न पथ में एक कदम भी
और लगाते दोष रहे यह
मंज़िल का पथ स्वयं थम गया
किरण ज्योति की बो न सके हम
सूनी रही ह्रदय की क्यारी
यही एक कारण , आंगन में
सिर्फ़ बिखरता हुआ तम गया

असमंजस के श्यामपट्ट पर
बने न निर्णय के श्वेताक्षर
शंकायें जो कल घिर आईं
आईं फिर से आज उमड़ कर
जुड़ीं अनिश्चय के चौराहे
पर न कभी निश्चय की गलियां
ऊहापोहों के गमले में
उगी न संकल्पों की कलियां

और संजोई पूंजी में से
एक दिवस हो और कम गया
खड़े रहे हम ही राहों में
कहते हैं, बस पंथ थम गया

रहे बिखेरे अंगनाई में
संशय के बदरंग कुहासे
खड़े रहे देहरी को थामे
किसी प्रतीक्षा को दुलराते
इन्द्रधनुष चाहत के हमने
प्रश्न चिन्ह से रखे टांग कर
रहे ढूँढ़ते रेखाओं को
आईने से साफ़ हाथ पर

और संजोते रहे पोटली में
जो बिखरा हुआ भ्रम गया
पांव हमारे उठे नहीं, हम कहते
हैं बस पंथ थम गया

फूलों की हर गंध, नाम के
बिना द्वार से लौटा दी है
द्वार चांदनी आई तो बस
यही शिकायत की आधी है
बिकीं रश्मि जब बाज़ारों में
हम तटस्थ ही खड़े रह गये
मधुमासों को नीरस कहते
अपनी ज़िद पर अड़े रह गये

अस्त-व्यस्त यूँ हुई ज़िन्दगी
टूट बिखर कर सभी क्रम गया
पांव हमारे उठे नहीं, हम कहते
हैं बस पंथ थम गया

पल ने जो उपहार दिया था

मंजूषा में से यादों की पुन: उभर कर आया वह पल
साथ तुम्हारा जिसने मुझको एक दिवस उपहार दिया था

नभ के गलियारे में जब था हुआ
सितारों का सम्मेलन
भाग्य लेख के किसी शब्द ने
किया बाँध कर हाथ निवेदन
तो हो द्रवित सभा ने उस पल
नक्षतों को किया नियंत्रित
और एक वह स्वर्णजड़ित पल
सहसा हुआ वहीं पर शिल्पित

जिसके अन्तर्मन से उपजी हुई एक अनुभूति देख कर
आवेदन, विधि ने सहसा ही बिना शर्त स्वीकार किया था

भू पर आकर उतरे थे तब
नभ की गंगाओं के धारे
कलियों ने अपने सब घूँघट
अगवानी में स्वयं उघारे
चन्दन की गंधों में डूबे
झोंके सारे चली हवा के
कमल. ताल की लहरों पर से
उचक उचक तुमको थे ताके

इन्द्रधनुष पर स्वर्ण किरण के तार बाँध कर मौसम ने भी
साज बना कर नया, तुम्हारी सरगम को झंकार दिया था

वह इक पल जिसमें सहसा ही
हुई सॄष्टि सम्पूर्ण समाहित
सुधियों का संचय पा जिसको
अपने साथ, हुआ आनंदित
जो धड़कन के नव गतिक्रम का
फिर से इक आधार बना है
वही एक पल आकर मेरी
सुधियों का संसार बना है

होकर अब जीवंत खड़ा है मेरी थामे उंगली वह पल
जिसने जाने या अनजाने जीवन पर उपकार किया था

ज़िन्दगी प्रश्न करती रही

ज़िन्दगी प्रश्न करती रही नित्य ही
ढूँढ़ते हम रहे हल कोई मिल सके
हर कदम पर छलाबे रहे साथ में
रश्मि कोई नहीं साथ जो चल सके

कब कहाँ किसलिये और क्यों, प्रश्न के
चिन्ह आकर खड़े हो गये सामने
सारे उत्तर रहे धार में डूबते
कोई तिनका न आगे बढ़ा थामने
दिन तमाशाई बन कर किनारे खड़े
हाशिये पर निशायें खड़ी रह गईं
और हम याद करते हुए रह गये
सीख क्या क्या हमें पीढ़ियां दे गईं

तेल भी है, दिया भी न बाती मगर
दीप्त करते हुए रोशनी जल सके

बस अपरिचित पलों की सभायें लगीं
जिनसे परिचय हुआ वे चुराते नजर
सारे गंतव्य अज्ञातवासी हुए
पांव बस चूमती एक पागल डगर
हो चुकी,गुम दिशायें, न ऊषा जगी
और पुरबाई अस्तित्व को खो गई
सांझ अनजान थी मेरी अँगनाई से
एक बस यामिनी आई,आ सो गई

हैं प्रहर कौन सा, छटपटाते रहे
एक पल ही सही, कुछ पता चल सके

कामनायें सजीं थीं कि ग्वाले बनें
हम बजा न सके उम्र की बाँसुरी
गीत लिख कर हमें वक्त देता रहा
किन्तु आवाज़ अपनी रही बेसुरी
द्वार से हमने मधुमास लौटा दिया
और उलझे रहे स्वप्न के चित्र में
अपने आंगन की फुलवाड़ियां छोड़ कर
गंध खोजा किये उड़ चुके इत्र में

अब असंभव हुआ जो घिरा है हुआ
यह अंधेरा कभी एक दिन ढल सके

आँसू ने इंकार कर दिया

मैने कलम हाथ में लेकर, सोचा शब्द पीर को दे दूँ
लेकिन आंसू ने स्याही में ढलने से इंकार कर दिया

निमिष विरह के जले दीप से, एकाकीपन नागफ़नी है
और जहां तक देखा मन में घिरी निराशा बहुत घनी है
मुस्कानों की नगरी वाले पथ पर जब जब भी आशायें
चलीं चार पग, वक्त लुटेरा, आ कर जाता राहजनी है

मैने हर पल ज्योति जगा कर एक किरन को पास बुलाया
लेकिन्ब रजनी ने उषा में ढलने से इंकार कर दिय

सुधियों की शहनाई पर जब बजी वेदनाओं की सारगम
सारंगी के करुण स्वरों ने किया साथ में मिलकर संगम
अलगोजे के सुर ने पकड़ा मरुथल वाली लू का झोंका
पंचम का आरोह बन गया, सिसकी वाला स्वर भी मद्दम

पथाराई आंखों में चाहा स्वप्न आंज दूं चन्द्र निशा के
लेकिन संध्या ने काजल में ढलने से इंकार कर दिया

सन्नाटे का दर्द न समझी, बढ़ती हुई गहन खामोशी
अपराधी सी हवा मौन है, दे स्वीकॄति होने की दोषी
सुइयों ने कर लिया घड़ी की, आज पेंडुलम से गठबन्धन
अटकी हुईं एक ही स्थल पर पीती हुईं सभी सरगोशी

मैने सूरज को आमंत्रण भेजा, आ दिन को गति दे दे
लेकिन उसके हर घोड़े ने चलने से इंकार कर दिया

बासन्ती चूनर पर आकर लगे बबूलों के यों पहरे
उड़ा रंग बस शेष रह गये हैं पतझड़ के साये गहरे
कोयल की कूकों को पीने लगी चीख नभ में चीलों की
ओढ़ घनी निस्तब्ध टीस को,पल आकर पल के घर ठहरे

मैने चाहा अमराई को नये सिरे से मैं बौराऊं
लेकिन मरुतों ने पुरबा में ढलने से इंकार कर दिया

थरथराती हुई उंगलियों से

नैन की झील में पड़ रहे बिम्ब में
चित्र आये हैं ऐसे संवरते हुए
थरथराती हुई उंगलियों से कोई
नाम कागज़ पे लिखता संभलते हुए

जो टँगीं हैं पलक की घनी झाड़ियों
पर हैं परछाईयां खो चुकी अर्थ भी
छटपटाती हुईं झूलने के लिये
थाम कर डोर कोई भी संदर्भ की
स्पर्श की आतुरा और बढ़ती हुईं
छू लें बिल्लौर सा झील का कैनवस
ज्ञात शायद न हो, भावना से रँगी
पर्त इस पर चढ़ी है रजत वर्क सी

याद का कोई आकर न कंकर गिरे
रंग रह जायें सारे बिखरते हुए

कांपते होंठ पर बात अटकी हुई
न कही जा रही, न ही बिसरे जरा
चित्र रेखाओं में इक उभरता हुआ
धुन्धमें डूब कर है कुहासों घिरा
एक पहचान के तार को खोजता
जोकि ईजिल की खूँटी से बाँधे उसे
ऒट से चिलमनों की रहा झाँकता
बन के जिज्ञासु, थोड़ा सा सहमा डरा

कोई लहरों पे सिन्दूर रंगता रहा
ढल रही शाम को चित्र करते हुए

है किसी एक आभास की सी छुअन
होती महसूस लेकिन दिखाई न दे
धमनियों में खनकती हुईं सरगमें
झनझनाती है लेकिन सुनाई न दे
मन के तालाब से धुल गये वस्त्र से,
भाव आतुर, टँगें शब्द की अलगनी
नैन लिखते हुए नैन के पत्र पर
बात वह जो किसी को सुनाई न दे

स्वप्न आकर खड़े हो रहे सामने
एक के बाद इक इक उभरते हुए

लिखता हूँ अध्याय चाह के

पुरबा ने बाँसुरिया बन कर जब छेड़ा है नाम तुम्हारा
अभिलाषा की पुस्तक में , मैं लिखता हूँ अध्याय चाह के

स्वस्ति-चिन्ह जब रँग देती है पीपल के पत्तों पर रोली
देहरी पर, अँगनाई में जब रच जाती मंगल राँगोली
आहुतियों के उपकरणों को जब संकल्प थमाता कर में
और ॠचायें भर भर लातीं स्वाहा के मंत्रों की झोली

उस पल मेरे वाम-पार्श्व का एकाकीपन बुनता सपने
एक तुम्हारी छवियों वाली अमलतास की विटप छाँह के

मलय वनों से निर्वासित गंधों ने जब घेरा चौबारा
जब ऊषा ने विश्वनाथ के द्वारे घूँघट आन उतारा
जब कपूर ने अगरु-धुम्र के साथ किया नूतन अनुबन्धन
और अवध की गलियों ने जब संध्या को कुछ और निखारा

उस पल भित्तिचित्र में ढलता बिम्ब तुम्हारा कमल्लोचने
संजीवित कर देता है सब स्वप्न संवरते बरस मास के

प्राची की अरुणाई में जब गूँजी है प्रभात की बोली
याकि प्रतीची में उतरी हो आकर के रजनी की डोली
चन्द्र-सुधा से डूबे नभ में, महके रजत पुष्प की क्यारी
दोपहरी के स्वर्ण-पात्र में जब मौसम ने खुनकें घोलीं

उस पल मेरे भुजपाशों में उतरा हुआ ह्रदय का स्पंदन
आतुर हो जाता पाने को स्पर्श यष्टि की सुदॄढ़ बाँह के

श्लोकों से स्तुत होते हैं जब मंदिर में कॄष्ण मुरारी
बरसाने का आमंत्रण जब दोहराती वॄषभानु-दुलारी
मीरा की उंगलियाँ जगातीं जब इकतारे का कोमल स्वर
और प्रीत की शिंजिनियाँ जब नस नस में जातीं संचारी

उस पल सुधि के मानचित्र पर रूप तुम्हार दिशाबोध बन
करता है गुलाब में पारिणत, सब सिकतकण बिछी राह के.

तुम्हें गीत बन जाना होगा

गा तो दूँ मैं गीत मान कर बात तुम्हारी ओ सहराही
लेकिन तुमको मेरे स्वर से अपना कंठ मिलाना होगा

यह पथ का संबन्ध साथ ले हमको एक डगर है आया
हमने साथ साथ ही पथ में बढ़ने को पाथेय सजाया
यद्यपि नीड़ तुम्हारे मेरे अलग अलग हैं ओ यायावर
मेरे जो हैं तुमने भी तो उन संकल्पों को दोहराया

बन कर इक बादल का टुकड़ा, बन तो जाऊं छांह पंथ में
लेकिन तुमको अपनी गति से कुछ पल को थम जाना होगा

जागी हुई भोर के पंछी हैं हम तुम फैला वितान है
सजा रखा पाथेय साथ में, संचित इक लम्बी उड़ान है
मॄगतॄष्णा के गलियारों से परे बने हैं मानचित्र सब
तीर भले संधान अलग हों,करने वाली इक कमान है

लक्ष्य-भेद मैं कर तो दूंगा, एक तुम्हारे आवाहन से
लेकिन प्रत्यंचा पर तुमको आ खुद ही चढ जाना होगा

जिन प्रश्नों ने तुमको घेरा, मैं भी उनमें कभी हुआ गुम
जिन शाखों पर कली प्रफ़ुल्लित,उन पर ही हैं सूखे विद्रुम
क्यों पुरबा का झोंका कोई, अकस्मात झंझा बन जाता
जितना कोई तुम्हें न जाने,उतना जान सको खुद को तुम

मैं उत्तर बन आ तो जाऊं उठे हुए हर एक प्रश्न का
लेकिन उससे पहले तुमको प्रश्न स्वयं बन जाना होगा

मैं चुनता हूँ वन,उपवन,घर-आँगन में बिखरे छंदों को
संजीवित करता हूँ पथ पर चलने की सब सौगंधों को
भाषा की फुलवारी में जो मात्राओं के साथ किये हैं
अक्षर ने, मैं दोहराता हूँ उन वैयक्तिक अनुबन्धों को

बन कर गीत संवर जाऊंगा मैं मन कलियों के पाटल पर
लेकिन तुमको अर्थों वाले शब्दों में ढल जाना होगा

नाम तुम्हारा आ जाता है

संझवाती के दीपक को जब सत्ता सौंपी है सूरज ने
जाने क्यों मेरे अधरों पर नाम तुम्हारा आ जाता है
सुर का सहपाठी होकर तो रहा नहीं मेरा पागल मन
फिर भी उस क्षण जाने कैसे गीत तुम्हारे गा जाता है

गोधूलि से रँगे क्षितिज पर, उभरे हैं रंगों के खाके
सिन्दूरी सी पॄष्ठभूमि पर, चित्र सुरमई बाल निशा के
और तुम्हारी गंधों वाली छवि से अँजे हुए नयनों में
लगते हैं अँगड़ाई लेने. कुछ यायावर शरद विभा के

कुछ पल का ही साथ इस कदर संजीवित कर गया समय को
लगता है तुमसे मेरा अनगिनती जन्मों का नाता है

सुरभि यामिनी गंधा वाली वातायन पर आ हँसती है
अभिलाषा के पुष्प-गुच्छ की रंगत और नई होती है
जलतरंग की मादक धुन में ढल जाते हैं पाखी के स्वर
गुंजित होती चाप पदों की एक अकेली पगडंडी पर

निंदिया का रथ मेरे घर से ज्ञात मुझे है बहुत दूर है
लेकिन स्वप्न तुम्हारा रह रह, पाहुन बन बन कर आता है

पनघट के पथ से आवाज़ें, देती है पायल मतवाली
कंदीलें उड़ने लगती हैं, महकी हुई उमंगों वाली
नैन दीर्घाओं में टँकते, चित्र कई जाने पहचाने
ढली सांझ में घुलते जाकर यादों के बीहड़ वीराने

संध्या-वंदन को, आँजुर में भरा हुआ जल अभिमंत्रित हो
इससे पहले दर्पन बन कर चित्र तुम्हारा दिखलाता है

नीड़ पथिक के पग को अपनी ओर बुलाने लगता है जब
अलगोजे के स्वर पर कोई भोपा गाने लगता है जब
शयन-आरती को मंदिर में तत्पर होता कोई पुजारी
करने लगती नॄत्य अलावों में जब इक चंचल चिंगारी

तब खिड़की पर आकर रुकता हुआ हवा का हर इक झोंका
मुझको लगता है संदेशे सिर्फ़ तुम्हारे ही लाता है

कल वे सब धूमिल हो लेंगें

आज नयन के पाटल पर जो चित्र बने जाने अनजाने
कल तक इतिहासों के पन्नों में वे सब धूमिल हो लेंगे

आज सुवासित करती है जो कली फूल बन कर उपवन को
उसकी नियति पांखुरी बन कर निश्चित है कल को झर जाना
पथ की सिकता जितने पग के चिन्ह लगाये है सीने से
कल तक एक हवा के झोंके से छूकर उनको मिट जाना

और आज पग जिन राहों को मंज़िल का पथ बना रहे हैं
कल को ये पथ इन कदमों की संभव है मंज़िल हो लेंगे

आंख-मिचौली, गिल्ली डंडा, रंगीं कंचे, टूटी चूड़ी
वह गलियों का मानचित्र की रेखाओं में घुलते जाना
चढ़ते हुए उमर की छत पर फ़ांद वयस-संधि मुंड़ेर को
नई शपथ का नये साथ का सहसा इक पौधा उग आना

दॄष्टि कलम तब लिख देती है जिन पन्नों पर प्रेम कथायें
संभव है वे पन्ने फट कर कल इक टूटा दिल हो लेंगे

चौबारे की तुलसी के चौरे पर दीप जला संध्या का
कितनी दूर प्रकाशित पथ को यायावर के कर पाता है
कंदीलों को गगन दीप की केवल संज्ञा दे लेने से
अंधियारी पावस रजनी का तिमिर दूर कब हो पाता है

आज खुशी के रंगों में रँग जो पल हम सब बाँट रहे हैं
रखे याद की मंजूषा में कल ये पल बोझिल हो लेंगें

बस इतना तुम याद न आओ

शपथ तुम्हें है मुझसे लेलो मेरी खुशियाँ, मेरे जीवन
जी न सकूँ में बिना तुम्हारे, बस इतना तुम याद न आओ

खंजननयने, तुम्हें विदित है तुम आधार मेरे जीवन का
शतदलरुपिणी ज्ञात तुम्हें है, तुम हो कारण हर धड़कन का
मौन सुरों की सरगम वाली वीणा की ओ झंकॄत वाणी
तुम ही तो निमित्त हो मेरे शतजन्मों के अनुबन्धन का

शपथ तुम्हारी, वापिस ले लो अपने प्यार भरे आलिंगन
मैं निमग्न जिनमें हो जाऊँ, अब इतना तुम याद न आओ

गुलमोहर की अमलतास की छांहों में लगते थे डेरे
वे अतीत के क्षण रहते हैं अक्सर ही सुधियों को घेरे
उनकी सुरभि सदा महकाती है मन का सूना गलियारा
घोर निशा में दोपहरी में, ढले सांझ या उगें सवेरे

वे पल मैने सुमन बनाकर रखे किताबों के पन्नों में
उनको किन्तु नहीं पढ़ पाऊँ, अब इतना तुम याद न आओ

उंगली के पोरों पर दस दस बल में लिपटी हुई ओढ़नी
पगनख से हस्ताक्षर करती हुई धरा पर एक मोरनी
रह रह कर पुस्तक के पन्नों से उठती झुकती वे नजरें
हरी सुपारी वाली कसमें सहज उठानी, सहज तोड़नी

मेरी निधि से ले लो चाहे पीपल छाया, घनी दुपहरी
आँचल से मैं चंवर डुलाऊँ, बस इतना तुम याद न आओ

तुझ पर ही सब कुछ आधारित


पिघले हुए स्वाति-चन्दा से
टपक गि्रीं सीपी मे बूंदें
जो, उन सबने आज सुनयने
तेरे अधरों को चूमा है

अलकापुर की सुरसरिता में
सद्य:स्नाता एक अप्सरा
उसके ही लंबे केशों से
मौक्त मणि का अंश जो झरा
पारिजात ने पांखुर के
प्याले में उसको रखा सहेजा
और एक आभूषण में फिर
ॠतुशिल्पी ने जिसे है जड़ा

रति के हस्ताक्षर से सज्जित
है जो यही अलौकिक माला
उसकी ही बस इक थिरकन पर
मन सम्मोहित हो झूमा है

अभिव्यक्ति के क्षीर-सिन्धु में
गोते खाने की अभिलाषा
पर शब्दों से कॄपण, कोष को
रिक्त देख मन रहता प्यासा
अक्षर अक्षर जोड़ जोड़ कर
बुने हुए पल और निमिष में
अनुभूति के एक अर्थ को
समझ, जानने की जिज्ञासा

प्रणय निवेदन के भावों से
भरे हुए इक भावालय को
साथ लिये मन का यायावर
तेरे चहुं ओर घूमा है

सगर वंशजों की आराधित
उमाकान्त की केशवासिनी
की पायल की झंकारों से
जागी है जो मधुर रागिनी
वह जमना की सिकता में जो
घुले हुए वंशी के स्वर हैं
को लेकर आकांक्षित है
बन सके कंठ की अंकशायिनी

उसी एक आतुर आशा की
आंखों का सतरंगी सपना
बार बार कहता है आकर
तेरी आंखों को छूना है

अधरों की थिरकन से फिसले
हुए शब्द की जर्जर काया
द्रुत सरगम पर ख्याल बिलम्बित
जीवन के साजों ने गाया
किन्तु तार के सप्तक तुझ पर
शुरू, तुझी पर अंत हुए हैं
तू जीने के लिये प्रेरणा
स्वीकारा, पर जान न पाया

ॠद्धि-सिद्धि, उपलब्धि-प्राप्ति के
सारे मंत्र तुझी से जागे
तेरा नाम न गूंजे जिसमें
अर्थहीन वह स्वर सूना है

१५०वीं पोस्ट-- एक वह प्रस्तावना हो

मीत तुम मेरे सपन के इन्द्रधनुषी इक कथानक
के लिये जो पूर्णिमा ने है लिखी, प्रस्तावना हो


जानता हूँ जो दिवस के संग शुरू होगी कहानी
पाटलों पर जो लिखेगी, रश्मि बून्दों की जुबानी
पंछियों के कंठ के स्वर का उमड़ता शोर लेकर
गंध में भर कर सुनायेगी महकती रात रानी

और हर अध्याय में जो छाप अपनी छोड़ देगी
तुम उसी के केन्द्रबिन्दु की संवरती कामना हो

फूल के द्वारे मधुप ने आ जिसे है गुनगुनाया
धार की अँगड़ाइयों ने साज पर तट के बजाया
ज्योति पॄष्ठों पर लिखा है जल जिसे नित वर्त्तिका ने
नॄत्य करते पांव को जो घुंघरुओं ने है सुनाया

वह विलक्षण राग जो संगीत बनता है अलौकिक
तुम उसी इक राग की पलती निरंतर साधना हो

आहुति के मंत्र में जो घुल रही है होम करते
जो जगी अभिषेक करने, सप्त नद का नीर भरते
मधुमिलन की यामिनी में स्वप्न की कलियां खिला कर
जो निखरती है दुल्हन के ध्यान में बनते संवरते

शब्द की असमर्थता जिसको प्रकाशित कर न पाई
मीत तुम अव्यक्त वह पलती ह्रदय की भावना हो

हो गई जड़ ये कलम अब

लेखनी अब हो गई स्थिर
भाव की बदली न छाती मन-गगन पर आजकल घिर

आँख से बहती नहीं अब कोई अनुभूति पिघल कर
स्वर नहीं उमड़े गले से, होंठ पर आये फ़िसल कर
उंगलियों की थरथराहट को न मिलता कोई सांचा
रह गया संदेश कोशिश का लिखा, हर इक अवांचा

गूँजता केवल ठहाका, झनझनाते मौन का फ़िर

चैत-फ़ागुन,पौष-सावन, कुछ नहीं मन में जगाते
स्वप्न सारे थक गये हैं नैन-पट दस्तक लगाते
अर्थहीना हो गया हर पल विरह का व मिलन का
कुछ नहीं करता उजाला, रात का हो याकि दिन का

झील सोई को जगा पाता न कंकर कोई भी गिर

दोपहर व सांझ सूनी, याद कोई भी न बाकी
ले खड़ी रीते कलश को, आज सुधि की मौन साकी
दीप की इक टिमटिमाती वर्त्तिका बस पूछती है
हैं कहां वे शाख जिन पर बैठ कोयल कूकती है

रिक्तता का चित्र आता नैन के सन्मुख उभर फिर

जो हवा की चहलकदमी को नये नित नाम देती
जो समंदर की लहर हर एक बढ़ कर थाम लेती
जो क्षितिज से रंग ले रँगती दिवस को यामिनी को
जो जड़ा करती सितारे नभ, घटा में दामिनी को

वह कलम जड़ हो गई, आशीष चाहे- आयु हो चिर

आप

आपकी प्रीत में डूब कर मीत हम, भोर से सांझ तक गुनगुनाते रहे
नैन के पाटलों पर लगे चित्र हम रश्मि की तूलिका से सजाते रहे
आपके होंठ बन कर कलम जड़ गये, नाम जिस पल अधर पर कलासाधिके
वे निमिष स्वर्णमय हो गये दीप से, बन के दीपावली जगमगाते रहे

उन गीतों से विलग हुआ मैं

कुछ ऐसा भी हुआ लिखे जो गीत उन्हें न कोई पढ़ता
फिर ऐसे गीतों से मैं भी विलग न होता तो क्या करता

कुछ ऐसे हैं जोकि भूमिकाऒं से आगे बढ़े नहीं हैं
हालातों से घबरा कर बैठे हैं बिल्कुल लड़े नहीं हैं
छंदो के इक चक्रव्यूह को रहे तोड़ने में वे असफ़ल
था सोपान गगन तक जाता, लेकिन बिल्कुल चढ़े नहीं हैं

जो प्रयास से भी थे होकर विमुख रहे शब्दों में छुप कर
मैं ऐसे निष्प्राण भाव के पुंज सँजो कर भी क्या करता ?

वासी फूल नहीं सजते हैं, तुम्हें विदित पूजा की थाली
स्वप्न चाँद के नहीं देखतीं कॄष्ण पक्ष की रातें काली
बिखरे अक्षत फिर माथे का टीका जाकर नहीं चूमते
मुरझाई कलियों को रखता है सहेज कर कब तक माली

जो हर इक अनुग्रह से वंचित और उपेक्षित होकर बैठे
तुम्ही कहो कब तक उनको मैं अपने कंठ लगा कर रखता ?

गति तो चलती नहीं बाँध कर, अपने साथ मील के पत्थर
धारा, जिसको बहना है वह रुकती नहीं तटों से बँधकर
प्राची नहीं जकड़ कर रखती , आये द्वार रश्मि जो पहली
खो देता अस्तित्व हवा का झोंका अपना बहना रुककर

मैं जीवन के स्पंदन के संग जब चल दिया बना हमराही
फिर रचना के अवशेषों को कब तक बाँध साथ में रखता ?

गीतों को मैं नूतन स्वर दूँ

जिन गीतों की जनक रही हैं चन्दन-बदनी अभिलाषायें
आप कहें तो अपने उन गीतों को मैं फिर नूतन स्वर दूँ

अगरु-धूम्र के साथ गगन में मुक्त छंद में नित्य विचरते
मानसरोवर में हंसों की पांखों से मोती से झरते
पनिहारी की पायक की खनकों में घुल कर जल तरंग से
कलियों के गातों को पिघली ओस बने नित चित्रित करते

सिन्दूरी गंधों से महके हुए शब्द की अरुणाई को
आप कहें तो फिर से उनके छंद शिल्प में लाकर भर दूँ

संदर्भों के कोष वही हैं और वही प्रश्नों के हल भी
अभिलाषायें जो थीं कल, हैं आज भी वही, होंगी कल भी
वही पैंजनी की रुनझुन के स्वर को सुनने की अकुलाहट
और वही संध्या के रंग में घुलता नयनों का काजल भी

हाँ ! कुछ बदला है शब्दों में, वह परिपक्व रूप का वर्णन
उसका चित्र कहें तो लाकर आज आपके सन्मुख धर दूँ

अँधियारी सुधियों को दीपित करते रहे बने उजियारे
पग को रहे चूमते होकर रंग अलक्तक के रतनारे
साधें सतरंगी करते से रख रख कर शीशे बिल्लौरी
राग प्रभाती और भैरवी ये बन जाते सांझ सकारे

किन्तु अभी तक जो एकाकी भटके मन के गलियारों में
आप कहें तो पल पुष्पित कर ,मैं उनका पथ सुरभित कर दूँ

बस तुम्हारा नाम गाते

देहरी से भोर की ले द्वार तक अस्ताचलों के
गीत मैं लिखता रहा हूँ बस तुम्हारे, बादलों पे
व्योम के इस कैन्वस को टाँग खूँटी पर क्षितिज की
चित्रमय करता रहा हूँ रंग लेकर आँचलों से

ध्यान का हो केन्द्र मेरे एक वंशीवादिनी तुम
बीतते हैं ज़िन्दगी के पल तुम्हारा नाम गाते

चाँदनी की रश्मियों को लेखनी अपनी बना कर
पत्र पर निशिगंध के लिखता रहा हूँ मै सजाकर
सोम से टपकी सुधा के अक्षरों की वर्णमाला
से चुने वह शब्द , कहते नाम जो बस एक गाकर

हो मेरे अस्तित्व का आधार तुम ही बस सुनयने
एक पल झिझका नहीं हूँ, ये सकल जग को बताते

एक पाखी के परों की है प्रथम जो फ़ड़फ़ड़ाहट
दीप की इक वर्त्तिका की है प्रथम जो जगमगाहट
इन सभी से एक बस आभास मिलता , जो तुम्हारा
चक्र की गति में समय के, बस तुम्हारी एक आहट

जो सुघर मोती पगों की चाप से छिटके हुए हैं
वे डगर पर राग की इक रागिनी अद्भुत जगाते

गान में गंधर्व के है गूंजती शहनाईयों का
देवपुर की वाटिका में पुष्प की अँगड़ाइयों का
स्रोत बन कर प्रेरणा का, रूप शतरूपे रहा है
षोडसी श्रॄंगार करती गेह की अँगनाईयों का

जो न होते पांव से चुम्बित तुम्हारे, कौन पाता
नूपुरों को, नॄत्य करती पेंजनी को झनझनाते

चन्दन लेप लगाया किसने

सावन की पहली बयार का झोंका है या गंध तुम्हारी
मेरे तप्त ह्रदय पर आकर चन्दन लेप लगाया किसने

खुले हुए अम्बर के नीचे जलती हुई धूप आषाढ़ी
धैर्य वॄक्ष पर रह रह गिरती, अकुलाहट की एक कुल्हाड़ी
स्वेद धार को धागा करके, झुलसे तन को बना चदरिया
विरह-ताप की, कलाकार ने रह रह कर इक बूटी काढ़ी

पर जो मिली सांत्वना यह इक प्यार भरी थपकी बन बन कर
मैं रह गया सोचता मुझ पर यह उपहार लुटाया किसने

टूटी शपथों की धधकी थी दग्ध ह्रदय में भीषण ज्वाला
और उपेक्षाओं ने आहुति भर भरकर घी उसमे डाला
विष के बाण मंत्र का ओढ़े हुए आवरण चुभे हुए थे
घेरे था अस्तित्व समूचा, बढ़ता हुआ धुंआसा काला

सुर सरिता सिंचित किरणों से ज्ञान-प्रीत का दीप जला कर
मन पर छाई गहन तमस को आकर आज हटाया किसने

गूँज रहा था इन गलियों में केवल सन्नाटे का ही स्वर
अट्टहास करता फिरता था, पतझड़ का आक्रोश हो निडर
फ़टी विवाई वाली एड़ी जैसी चटकी तॄषित धरा पर
पल पल दंश लगाता रहता था अभाव का काला विषधर

थे मॄतप्राय ,सभी संज्ञा के चेतन के पल व अवचेतन
सुधा पिला कर फिर जीने का नव संकल्प सजाया किसने

आप - एक अंतराल के पश्चात पुन:

आपकी देख परछाईयाँ झील में, चाँदनी रह गयी है ठगी की ठगी
आप बोले तो मिश्री की कोई डली, फ़िसली होठों से ज्यों चाशनी में पगी
मुस्कुराये तो ऐसा लगा है गगन आज बौछार तारों की करने लगा
नैन जैसे खुले, आस के रंग में डूब कर कल्पनायें उमगने लगीं

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

आपकी दॄष्टि की रश्मियों से जगे, बाग में फूल अँगड़ाई लेते हुए
सावनी मेघ घिरने लगे व्योम में, आपके कुन्तलों से फ़िसलते हुए
साँस की टहनियाँ थाम कर झूलतीं, गुनगुना मलयजी होती पुरबाइयाँ
नैन की काजरी रेख से बँध गये, सुरमई सांझ के बिम्ब ढलते हुए

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

मन अब ये हो गया मरुस्थल

टूट गईं वे चन्दन कलमें, जो चित्रित गीतों को करतीं
फूल न अब खिलते शब्दों के मन मेरा हो गया मरुस्थल

कुंठाओं की अमरबेल ने घेरी भावों की फुलवारी
जली प्यास से सुलग रही है, संबंधों की सूनी क्यारी
सौगंधों के डंक विषैले फिर फिर दंश लगा जाते हैं
चुभती है रह रह सीने में तपी याद की एक कटारी

आशाओं की झीलों पर यूँ जमी हुईं काई की परतें
कितने भी पत्थर फ़ेंको, अब होती नहीं तनिक भी हलचल

त्रिभुज बनी हैं विद्रोहित हो, हाथों की सारी रेखायें
पल पल कुसुमित होती रहतीं, मन में उगती हुई व्यथायें
बरसी हुई निराशा पीकर,हो जाता बोझिल सन्नाटा
गठबंधन हैं किये जेठ से, जो सावन की रही घटायें

दिशाभ्रमित पग आतुर, कोई मिले राह से जो अवगत हो
लेकिन मुझको पता पूछती मिली सिर्फ़ पगडंडी पागल

नयनों का हर मोती, हंसा बन कर पीड़ा ने चुग डाला
पथ का हर इक दीप, तिमिर का बैठा ओढ़े हुए दुशाला
अनुभूति पर गिरी अवनिका, अभिव्यक्ति ने खोई वाणी
निशा-नगर से मिला, आस के हर सपने को देश निकाला

बंजर हुई भावनाओं की, प्राणों से सिंचित अमराई
गिरे पथिक को अब राहों में देता नहीं कोई भी संबल

सुधि की पुस्तक का हर पन्ना, फ़टा और उड़ गया हवा में
कोष लूट ले गये लुटेरे, छुप कर माँगी हुई दुआ में
रही टपकती उम्र पिघल कर, माँग प्रतीक्षा की सूनी ही
और उपेक्षित सन्दर्भों पर वापिस पड़ती नहीं निगाहें

तोड़ चुकी दम, हर वह दस्तक, जिसमें स्वाद दिलासे का था
सिर्फ़ शेष है दर्द पुराना, खड़काता आ आकर साँकल

आप जिसकी अनुमति दें

एक मुट्ठी में लिये हूं गीत, दूजी में गज़ल है
आप जिसकी दें मुझे अनुमति, वही मैं गुनगुनाऊं

प्रीत के पथ से चली पुरवाई की चन्दन कलम से
गंध की ले रोशनाई , छंद में लिखता रहा हूँ
भोर की पहली किरण के स्वर्ण में मणियां पिरोकर
भाव के आभूषणों को शिल्प में जड़ता रहा हूँ
नैन झीलों में हिलोरें ले रहीं हैं जो तरंगें
वे बनी हं आप ही आ गीत की मेरे रवानी
तितलियों के पंख पर जो हैं कली के चुम्बनों ने
लिख रखीं.दोहरा रहा हूँ शब्द से मैं वह कहानी

जो मधुप गाता रहा है वाटिका की वीथियों में
आपका आदेश हो तो रागिनी मैं, वह सुनाऊं

शब्द जो गणगौर के तैरे गुलाबी वीथियों में
मैं उन्हें क्रमबद्ध कर अशआर की जागीर देता .
घूँघटों से छन रही हैं जो निरन्तर ज्योत्सनायें
वे हुईं हैं भावभीनी नज़्म की हरदम प्रणेता
पैंजनी का सुर, मिला संगीत पीतल के कलश का
नाचता है जोड़ कर आवाज़ अपनी कंठ स्वर से
झिलमिलाती ओढ़नी, गोटे जड़ी उड़ती हवा में
ढल गई है शेर में हर एक वह मेरी गज़ल के

ताल के बिन जो अभी तक अनकही ही रह गईं है
आप कह दें तो गज़ल उस से अधर को थरथराऊँ

छैनियों ने पत्थरों पर जिन कथाओं को तराशा
वे कथायें बन गई हैं गीत की संवेदनायें
पॄष्ठ पर इतिहास के जो दीप अब भी प्रज्वलित हैं
दीप्तिमय करते रहे हैं अर्चना आराधनायें
हर अधूरी रागिनी को पूर्ण करते बोल जो भी
वे बने हैं मंत्र पूजा के तपों में साधकों के
आस की ले कूचियां विश्वास की मधुरिम विभा से
रँग रहे श्रुतियाँ अनेकों ला अधर पर पाठकों के

बन ॠचायें छंद की बिखरे पड़े हैं सामने सब
आपका जिस पर इशारा हो उसी को मैं उठाऊँ

जानता संभव कसौटी गीत अस्वीकार कर दे
और गज़लों के वज़न में संतुलन की खामियाँ हों
हाथ असफ़लता लगे जब शिल्प की अन्वेषणा में
और भावों के कथन में अनगिनत नाकामियाँ हों
किन्तु मेरे मीत जो मेरे अधर पर काँपते हैं
वह गज़ल या गीत जो हैं आप ही के तो लिये हैं
जो कमी है या सुघड़ता, आप ही की प्रेरणा है
शब्द जितने पास थे सब आप ही के हो लिये हैं

स्वर मेरे, अक्षर मेरे बस एक संकुल के प्रतीक्षित
जब मिले, मैं पूर्णता की ओढ़ चादर मुस्कुराऊँ

आप जो आदेश दें मैं आपको अब वह सुनाऊँ

फूल की गंध में चाँदनी घोल कर

कैनवस पर गगन के लिखा भोर ने
नाम प्राची की जो खिड़कियां खोलकर
रश्मियों ने उसे रूप नव दे दिया
बात उषा के कानों में कुछ बोलकर
आप के चित्र में आप ही ढल गया
आज मेरे नयन के क्षितिज पर तना
रंग भरता हूँ मैं भोर से सांझ तक
फूल की गंध में चाँदनी घोल कर

गीत हो यह कब जरूरी

गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर
लेखनी का छोड़ते हैं हाथ, कह ये बात अक्षर
भावनायें रह गईं अक्सर अधूरी ही, उमड़ कर

छंद में बँधना कहाँ हर शब्द की किस्मत हुई है
और कब तक भाव को एकाग्रता के तार बाँधें
भार होता एक सा कब? पल विरह का, पल मिलन का
इक सुमन सा, दूसरे का ढो न पाते बोझ कांधे

हर दफ़ा चित्रित न होतीं तूलिकायें कैनवस पर
गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर

है जरूरी कब? घटा जब जब घिरे, हर बार बरसे
तीर जो संधान हो हर एक , पा जाये निशाना
और नदिया बँध किनारों में सदा बहती रहेगी
मुस्कुराये हर दिवस ही बाग में मौसम सुहाना

या निशा की पालकी में चाँद आये नित्य नभ पर
गीत हो, यह कब जरूरी शब्द जो आये अधर पर.

पायलों में झनझनाना घुंघरुओं की नियति यद्यपि
शर्त लेकिन् है नहीं हर नॄत्य में वे गुनगुनायें
साज का है सरगमों से ज्न्म, का अनुबन्ध चाहे
ये नियम भी तो नहीं हर राग में वो गीत गाये

सांझ की दुल्हन न आती नित्य ही बन कर संवर कर
गीत ही हो कब जरूरी शब्द जब आये अधर पर

स्वाति के मेघ घिरते नहीं

सांझ ढलने लगी और बढ़ने लगी
ढेर एकाकियत जब मेरे कक्ष में
सैंकड़ों चित्र आकर उमड़ने लगे
सात रंगों में रँगकर मेरे अक्ष में

पीठ अपनी तने से सटा, नीम की
छांह में बैठ पढ़ते किताबें कभी
तो क्भी दोपहर की पकड़ चूनरी
गीत बादल के संग गुनगुनाते हुए
वाटिका में लिये टोकरी फूले की
अर्चना के लिये पुष्प चुनते हुए
तो कभी बैठ मनिहारियों के निकट
चूड़ियों से कलाई सजाते हुए

सहसा जागे हुए, याद की नींद से
भाव भरने लगे कुछ नये, वक्ष में

चित्र इक गुलमोहर से सजी पगतली
कुन्तलों में मदन आ गमकता हुआ
औ’ कपोलों को आरक्त करता हुआ
स्वप्न कोई फ़िसल नैन की कोर से
बन के अलगोजा दांतों से बातें करे
एक चंचल कलम, उंगलियों में उलझ
कल्पना लेके अंगड़ाई उड़ती हुई
बँध उमंगों भरी रेशमी डोर से

एक मोहक लजीली लिये स्मित अधर
रिक्त करते हैं संचय कलादक्ष में


षोडशी सांझ की चौखटों को पकड़
है प्रतीक्षा बनी एक चातक विहग
स्वाति के मेघ घिरते नहीं नित्य हैं
प्यास के किन्तु कीकर हुए सावनी
ओढ़नी में समेटे निशा ले गई
आस का कोई सपना बढ़ा जो इधर
भोर से दोपहर तक, सभी हो गईं
एक बोझिल उदासी की अनुगामिनी

काल के चक्र से जितने पल हैं मिले
चार-छह भी नहीं हैं मेरे पक्ष में

आमंत्रण है उद्घाटन का

मीत ! ह्रदय की अँगनाई में मैने जो निर्माण किया है
उसका उद्घाटन करने को आज तुम्हें आमंत्रण भेजा

पत्थर लिये भावनाओं के, मन मकराना की खानों से
पच्चीकारी की है उन पर कोयल की मधुरिम तानों से
एक अनूठी लगन रोप कर रखी हुई आधार शिलायें
जिन्हें मांग कर लाया हूँ मैं, इतिहासों के दीवानों से

एक तपस्वी के दॄढ़ निश्चय सी दीवारों से आरक्षित
मंदिर में बस एक तुम्हारी ही प्रतिमा को रखा सहेजा

प्राची की अँगड़ाई लेकर भित्तिचित्र हर ओर बनाये
अनुभूति के फूल द्वार पर वंदनवार बना लटकाये
भावुकता के निमिष पिरोकर रँगी अल्पनाऒं से देहरी
नयनों के सतरंगी सपने कालीनों की तरह बिछाये

और तुम्हारी छवियों वाले रंग लिये फूलों को रंगता
फुलवाड़ी की हर क्यारी में मन का ये पागल रँगरेजा

सौगंधों की कड़ियां जोड़ीं विश्वासों के शहतीरों से
रखी आस्थाओं की छत पर निष्ठाओं की ज़ंज़ीरों से
साधी कंदीलों में ज्योतित मैने किया साधनाओं को
राहें दीप्तिमान कीं सारी , सम्बन्धों की प्राचीरों से

अगवानी की थाली में रख कर सर्वस्व हुआ संकल्पित
मीत मेरे यह सब कुछ तेरा, जो चाहे वह आकर लेजा

चन्दन की गंधें टाँगी है लाकर मैने वातायन पर
पुरबाई के नूपुर मेंने जड़े हुए खिड़की की सिल पर
जूही की कलियों के परदों में गुलाब की पंखुरियों को
एक तुम्हारा स्वागत करने को लटकाया हर चौखट पर

और तुम्हारी गलियों से जो चला, हवा के हर झोंके से
कहा, तुम्हारे पग उठते ही आकर के संदेसा दे जा

रात भर मैने बुने हैं

रात के दरवेश से हर रोज यह कहते सवेरे
रात भर मैने बुने हैं ओ निमग्ने गीत तेरे

पंखुड़ी में फूल की, रख केसरों की वर्त्तिकायें
गंध चन्दन में डुबो अपने ह्रदय की भावनायें
पारिजाती कामना के पुष्प की माला पिरोकर
एक तेरी प्रियतमे करता रहा आराधनायें

तूलिका ने हर दिशा में रंग जितने भी बिखेरे
प्राण सरिते ! देखता हूँ उन सभी में चित्र तेरे

शब्द तेरे नाम वाला अर्चना का मंत्र बन कर
भोर मे संध्या निशा में, हर घड़ी रहता अधर पर
धड़कनों की ताल पर जो नॄत्य करती रागिनी है
सांस हर गतिमान है उसके थिरकते एक स्वर पर

आहुति की आंजुरि मं आ गया संचय समूचा
सप्तरंगी रश्मियों के साथ शरमाते अँधेरे

ज्ञात की अनुभूतियों में तुम, मगर अज्ञात में भी
व्योम में, जल में, धरा में, अग्नि में तुम, वात में भी
तुम विधि ने भाल पर जो लिख रखी है वो कहानी
बिन्दु तुम हो ज़िन्दगी का केन्द्र, रेखा हाथ की भी

चेतना की वीथियों में रूप इक विस्तार पाकर
चित्र में ढल कर तुम्हारे रँग रहा अहसास मेरे

ओ पिया ओ पिया

जाने किसके बदन की उड़ी गंध को
पीके झोंका हवा का मचलता हुआ
मेरे सीने से आकर लिपतते हुए
कह रहा, ओ पिया! ओ पिया ! ओ पिया

ताल के मध्य में एक जलकुंड से
सूर्य के बिम्ब की रश्मियां थाम कर
छांह से पत्तियों की फ़िसलते हुए
लिख रहा नाम अपना मेरे नाम पर
उंगलियों से हथेली की रेखाओं में
जाने क्या ढूँढ़, महसूस करता हुआ
इक सुहाना मधुर पल ज्यों अहसास का
अधखुली मुट्ठियों में जकड़ता हुआ

फूल की पांखुरी की किनारी पकड़
पत्र पर बादलों के लगा लिख दिया
ओ पिया, ओ पिया, ओ पिया, ओ पिया

वादियों में शिखर से उतरता हुआ
भोर की घंटियों से उठा जाग के
और पगडंडियों के किनारे खड़ी
दूब को देता संदेश अनुराग के
मलयजी ओढ़नी को लपेटे हुए
ढल रही सांझ जैसा लजाता हुआ
कोयलों के सुरों की पिरो रागिनी
कंठ में अपने, वंशी बजाता हुआ

कसमसाती हुई एक अँगड़ाई सा
बन के पारा मचलता हुआ बह दिया
ओ पिया, ओ पिया, ओ पिया, ओ पिया

स्वप्न की वीथियों में टपकती हुई
चाँदनी में भिगो पांव धरता हुआ
ओस के पद सी कोमल लिये भावना
मुझको छूते हुए कुछ सिहरता हुआ
गुनगुनाते हुए एक संदेस को
साज की तंत्रियों में पिरोये हुए
वेणियों में संवरते हुए पुष्प की
गंध को, अंक अपने समेटे हुए

भोर के द्वार पर देके आवाज़ फिर
नाम रांगोलियों में रँगा, रख दिया
ओ पिया, ओ पिया, ओ पिया, ओ पिया

गंध की रागिनी

आपका स्पर्श पा और मदमय हुई
प्रीत पीती हुई जगमगा चाँदनी

आपके पांव छूकर बढ़ा इस तरफ़
संदली एक झोंका महकता हुआ
था अलक्तक के रंगों से भीगा हुआ
इसलिये रंग वादी में भरता हुआ
छेड़ता शाख पर पत्तियों को मचल
एक चुम्बन कली के जड़ा गाल पर
फिर बजाने लगा जलतरंगें मधुर
बाग के बीच बैठे हुए ताल पर

फूल की क्यारियाँ छेड़ने लग गई
गंध की एक मादक मधुर रागिनी

आपके केश से उठ घटा सावनी
छाई अंबर में जब ले के अँगड़ाईयाँ
खुश्बुओं से दिशायें महकने लगीं
गीत गाने लगीं झूम परछाइयाँ
चातकों के हुए स्वप्न साकार सब
सीपियां मौक्त-श्रॄंगार करने लगीं
यज्ञ की भूमि पर एक कदली तरू
से महकती हुई लौ उमड़ने लगी

वेद की कुछ ॠचायें लगीं झूमने
आपके कंठ की हो के अनुगामिनी


आपकी उठ गई जो पलक तो छिटक
कर गिरी, गुनगुनी धूप दालान में
जितने साये खड़े बुर्जियों पर छुपे
गुम हुए वे सभी अपनी पहचान में
बात दीवार से चौक करने लगा
खिड़कियाँ झाँक कर देखती रह गईं
पौलियां देहरी, खनखनाते हुए
बात गलियों के कानों में कहती रहीं

ईर्ष्या से जली, आपको देखकर
खोल नभ के झरोखे, चपल दामिनी

आपके मुख से दीपित हुई जो निशा
रात पूनम की जैसे लगा आ गई
आपकी चूनरी जो हवा में उड़ी
तो गगन पर सितारों की रुत छा गई
तैरने लग गईं नभ की मंदाकिनी
में हजारों उमंगों की नौका सजी
भोर के द्वार से सोलह श्रॄंगार कर
एक शहनाई फिर राग से बंध बजी

बाग कर आरती कर रहे हैं स्तुति
एक तुम ही बहारों की हो स्वामिनी

अस्मिता खो गई

रोशनी दायरों में पिघलने लगी
चाँदनी आयेगी, ये न निश्चित हुआ, दस्तकें तट पे दे धार हँसने लगी

टिमटिमाते हुए कुमकुमों से झरे
जुगनुओं के महज पंख टूटे हुए
फ़ुनगियों के लटकते रहे शाख से
साये जो दोपहर के थे छूटे हुए
दलदली घास अँगड़ाई लेती रही
कोई आये उठाने उसे सेज से
आस के स्वप्न तैरा किये आँख की
झील में,बिम्ब से एंठ रूठे हुए

सांझ के केश बिखरे, घनी स्याहियां बून्द बन कर गगन से बरसने लगीं
रोशनी दायरों में पिघलने लगी

पत्र ने सरसराते हुए कुछ कहा,
जब इधर से गया एक झोंका मगन
गुलमोहर ने लुटाया उसे फूल पर
थी पिरोकर रखी ढेर उर में अगन
पारिजातों की कलियों ने आवाज़ दे
भेद अपना बताया है कचनार को
चांदनी कैद फिर भी रही रात भर
चांद से न उड़े बादलों के कफ़न

एक कंदील थी जो निशा के नयन में किरन बन गयी, फिर चमकने लगी
रोशनी दायरों में पिघलने लगी

बढ़ रहे मौन के शोर में खो गयी
गुनगुनाती हुई एक निस्तब्धता
पल सभी मोड़ पर दूर ठहरे रहे
ओढ़ कर एक मासूम सी व्यस्तता
रात की छिरछिरी ओढ़नी से गिरा
हर सितारा टँगा जो हुआ, टूट कर
अपनी पहचान को ढूँढ़ती खो गई
राह में आ भटकती हुई अस्मिता

ओढ़ मायूसियों को उदासी घनी, आस पर बन मुलम्मा संवरने लगी
रोशनी दायरों में पिघलने लगी

उन गीतों को गाऊं क्योंकर

तुमने जिनको स्वर न दिया, उन गीतों को मैं गाऊं क्योंकर

छन्दों की थाली में मैने अक्षर अक्षर पुष्प संवारे
भावों का जलकलश लिये, आराध्य देव के पांव पखारे
लिये भावनाओं के कुंकुम अक्षत से श्रॄंगार किया है
धड़कन को कर दीप, द्वार पर बिखराये मैने उजियरे

किन्तु झरी पांखुर वाले हैं सुमन, शब्द मात्राओं के बिन
मुरझाये फूलों को पिय के फिर मैं पांव चढ़ाऊं क्योंकर


अभिमंत्रित करके सपनों को सौगंधों के गंगाजल से
पलकों पर टांका, सज्जित कर सुरभित संध्या के काजल से
अभिलाषा की वेणी में गूंथे आशा के कई सितारे
जो उधार लेकर आया था रजनी के झीने आंचल से

किन्तु स्वरों की पायल ने जब सब अनुबन्धन तोड़ दिये हैं
तुम्ही कहो झंकॄत घुंघरू सा मैं आखिर बन जाऊं क्योंकर


भोजपत्र पर लिखी कथाओं को फिर फिर मैने दोहराया
चित्रित एक अजंता को मैं सुधियों में भर भर कर लाया
मीनाक्षी,कोणार्क,पुरी के शिल्पों की अभिव्यक्ति चुरा कर
अनुभूति के रामेश्वर पर फिर मैने अभिषेक चढ़ाया

पर हर पल बिखरा, झंझा में ध्वंस हुए ता्शों के घर सा
तुम्हीं बताओ फिर खंडहर पर नव निर्मान बनाऊँ क्योंकर ??

गीत बनने से पहले बिखरते रहे

आपका ये तकाजा लिखूँ गीत मैं
छंद बनने से पहले बिखरते रहे

अक्षरों के लगा पंख उड़ न सके
भाव बैठे थे अनुभूति की शाख पर
मन की खिड़की पे लटकी हुईं चिलमनें
देख पाये न बाहर तनिक झांक कर
ज्यों गिरा नैन बिन, नैन वाणी बिना
भाव शब्दों बिना, शब्द भावों कटे
एक जुट हो कभी वाक्य बन न सके
शब्द सारे रहे हैं गुटों में बँटे

और अभिव्यक्तियों के निमिष, आँख की
कोर पर आये, आकर पिघलते रहे

शब्द को चूमने को हुई आतुरा
लेखनी पॄष्ठ के पंथ पर है खड़ी
भावनाओं की परवाज को बाँध कर
झनझनाती है बिखराव की हथकड़ी
जो अलंकार हैं उनको आवारगी
ले गई साथ अपने कहीं दूर ही
उठ न पाई है बिस्तर से उपमा कोई
साँझ आलस से थक कर हुई चूर थी

दंश तीखे दिये जा रही व्याकरण
जोकि सीधे ह्रदय में उतरते रहे


फिर ये सोचा लिखूँ, नाव, नदिया कमल
फूल जूही के साया अमलतास का
रंग सिन्दूर का, स्वर्ण प्राची के पल
और सम्बन्ध आशा से विश्वास का
गागरी भर तॄषा, आंजुरि तॄप्ति को
प्रीतमय दॄष्टि की अनवरत साधना
डूब ॠतुगंध में मुस्कुराती हुइ
गुनगुनाती हुई एक शुभकामना

पर कलम की गली पूर्ण निर्जन रही
रेत के बस बगूले उमड़ते रहे

लिख न पाया तो सोचा कि गाऊं मैं, मन
की अंधेरी गुफ़ाओं की आवाज़ को
सरगमों के रुदन को जो पीता रहा
सांस की पीर के एक उस साज को
अनकही रह गई अधखुले होंठ पर
थरथराती हुई एक सौगन्ध को
प्राण ने चेतना से कभी था किया
एक अव्यक्त अभिप्राय अनुबन्ध को

थाम पाये न झंकार की बाँह स्वर
तार की अलगनी पर फ़िसलते रहे

सांकलों में घिरी याद की कोठरी
कोई चाबी नहीं खोल ताले सके
घुट अंधेरे में बैठी हैं अंगनाईयां
ताक पर सारे जाकर उजाले टँगे
नीम की छांह दीवार ने छीन ली
सावनों के अधर उग रही प्यास है
जिसकी सोचा कि थामूँ तनिक उंगलियां
राह भटका हुआ वो भी मधुमास है

पूजते हम रहे पंचमी को मदन
और आशाओं के पात झरते रहे

टूटने लग गई सांस की लय-गति
ताल धड़कन की बेताल होने लगी
दायरे में घिरीं भावना से परे
अर्थ अनुभूतियां आज खोने लगीं
स्वर विमुख हो गया, शब्द आया नहीं
और विद्रोह भाषा किये जा रही
राग छूटे, न गंधें हवा में उड़ीं
स्पर्श में कोई पांखुर नहीं आ रही

हम समर्पित किये जा रहे अब कलम
शब्द जिससे निगाहें बदलते रहे

बस घटा रो गई

ताल पर धड़कनों की नहीं बज सकीं
सांस की सरगमें लग रहा सो गईं

शब्द ने कल भी चूमा नहीं था इन्हें
अधलिखे रह गये पॄष्ठ सब आज भी
कोई परछाईं तक भी नहीं दिख सकी
वीथियों में भटकते हुए याद की
मन के दर्पण में छाई हुई धुंध में
सारे आकार घुलते हुए खो गये
उनके अंकुर न फूटे बदल ॠतु गईं
बीज जो थे ह्रदय में कभी बो गये

शून्य बन कर दिवाकर क्षितिज पर उगा
रोशनी अपनी पहचान तक खो गई

स्वप्न की कूचियां, चित्र कल के बनें
कोशिशों में उलझ्ती हुई रह गईं
फूल सूखे किताबों में मिल न सके
आंधियों में सभी पांखुरी उड़ गईं
गंध को पी गई, वक्त की इक हवा
छाप होठों की रूमाल से धुल गई
विस्मॄति के अंधेरे घने साये में
आकॄति मन में जितनी बसीं घुल गईं

और सावन की राहों से बिछुड़ी हुई
चार आंसू, घटा एक आ रो गई

फिर घिरे संशयों के कुहासे घने
धुन्ध में डूब कर पंथ सब रह गये
आज निष्ठा हुई बुझ चुके दीप सी
शेष संकल्प थे जो सभी बह गये
मौसमों ने चुरा रंग वनफूल के
घाटियों पर घनी पोत दीं स्याहियां
तूलिका रंग सिन्दूर के ढूँढ़ते
है भटकती फिरी आठ अँगनाईया

बिम्ब अँगड़ाई लेकर लगे पूछने
प्रीत की अस्मिता अब किधर को गई

इसीलिये मैं मौन रह गया

एक तुम्हारा प्रश्न अधूरा, दूजे उत्तर जटिल बहुत था
तीजे रुंधी कंठ की वाणी, इसीलिये मैं मौन रह गया

बचपन की पहली सीढ़ी से यौवन की अंतिम पादानें
मंदिर की आरति से लेकर मस्जिद से उठती आजानें
गिरजे की घंटी के सुर में घुलती हुई शंख की गूँजें
थीं हमको आवाज़ लगातीं हम आकर उनको पहचानें

लेकिन पिया घुटी में जो था, उसका कुछ प्रभाव ऐसा था
परछाईं में रहे उलझते, और सत्य हो गौण रह गया

लालायित हम रहे हमेशा, आशीषों के चन्द्रहार के
और अपेक्षित रहे बाग के दिन सारे ही हों बहार के
स्वर्ण-पत्र पर भाग्य लिखेगा सदा, हमारा भाग्य नियंता
और कामनायें ढूंढ़ेंगी, रह रह कर हमको पुकार के

जब ललाट पर लगीं उंगलियां, हमने सोचा राजतिलक है
देखा दर्पण में तो पाया, केवल लगा डिठौन रह गया

सदा शीर्ष के इर्द गिर्द ही रहीं भटकतीं अभिलाषायें
और खोजतीं केवल वे स्वर, जो श्रवनामॄत मंत्र सुनायें
पक्षधार हो द्रोण, कर सके, एकलव्य हर एक नियंत्रित
और दिशायें विजयश्री की धवल पताकायें फ़हरायें

जीवन के इस बीजगणित के लेकिन समीकरण सब उलझे
जो चाहा था पूरा हो ले, वो ही आधा-पौन रह गया

जहां लिया विश्राम काल की गति ने एक निमिष को रुककर
थमे हुए हैं जीवन के पल, अब तक उसी एक बिन्दु पर
राजसभा में ज्यों लंका की, पांव अड़ाया हो अंगद ने
या इक राजकुंवर अटका हो, चन्दा को पाने के हठ पर

बारह बरस बदल देते हैं, मिट्टी की भी जर्जर काया
ढूंढ़ रहा हूँ कोई बताये, ये सब बातें कौन कह गया ?

संभव है इस बार

संभव है इस बार सदी के बँधे हुए बन्धन खुल जायें
संभव है इस बार आंसुओं से सारे क्रन्दन धुल जायें
संभव है इस बार नदी के तट की उजड़ी हुई वाटिका
में लहरों से सिंचित होकर महकों के चंदन घुल जायें


जगा रहाहूँ आज नये स्वर, एक यही मैं बात सोचकर
ओ सहभागी कंठ जोड़ लो अपना तुम भी आगे बढ़ कर

माना कल भी घिर आये थे ऐसे ही आशा के बादल
माना इसीलिये खोली थी कलियों ने सुधियों की सांकल
माना कल भी पनघट पर था रीते कलशों का सम्मेलन
माना कल भी गाता था मन मेरा ये आवारा पागल

किन्तु मेरे सहयोगी ! क्षण में सब कुछ सहज बदल जाता है
लिखा हुआ बदलाव समय की उठती गिरती हर करवट पर

साक्षी है इतिहास कि स्थितियां सब परिवर्तनशील रही हैं
गंगायें शिव के केशों से बिना रुके हर बार बही हैं
सब कुछ सम्भव, सब क्षणभंगुर, कहते रामायण, सुखसागर
विश्वासों में ढले दीप को कभी ज्योति की कमी नहीं है

तुम भी मेरे संकल्पों में आओ अपना निश्चय घोलो
तब ही बरसेगी अभिलाषा की अमॄतमय घटा उमड़ कर

एक किरण बन गई चुनौती गहन निशा के अंधियारे को
एक वर्तिका है आमंत्रण, दिन के उज्ज्वल उजियारे को
एक पत्र की अंगड़ाई से उपवन में बहार आ जाती
एक कदम आश्वासन देता है राहों का बंजारे को

एक गीत की संरचना में जुड़ी हुई इसलिये लेखनी
शत सहस्त्र गीतों में निखरे शारद का आशीष निखर कर

नजर हो चुकी है सन्यासी

ॠष्यमूक पर बैठे बैठे हमने सारी उमर गँवा दी
किन्तु न आया राह भटक भी, इस पथ पर कोई वनवासी

अपनी परछाईं से भी हम
रहे प्रताड़ित थे हतभागे
आतुर थे इक दिवस समय ये
करवट कोई लेकर जागे
तने शीश पर के वितान के
अँधियारे को पी ले कोई
और दिशा की देहरी चूमें
आकर कभी रश्मियाँ खोई

दस्तक से छिल चुकी हथेली में रेखाओं को तलाशते
अब तो कुशा कमंडल लेकर, नजर हो चुकी है सन्यासी

बारह खानों में घर अपना
बना बैठ रह गये सितारे
था अभिमान बड़ा गुरुओं को
करते सभी समन्वय हारे
जो मध्यम में रहे पिसे वह
दशा न बदली पल भर को भी
उठे हाथ थक गये, थामने
बढ़ा न कोई हो सहयोगी

उलझे समीकरण प्रश्नों को और जटिल करते जाते हैं
कोई हल संभावित होगा, आशा भी न बची जरा सी

नयनों की फुलवारी में बस
पौधे उगे नागफ़नियों के
रिश्ते जितने जुड़े बहारों से
सारे हैं दुश्मनियों के
चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर

आशाओं का लुटा चन्द्रमा, अभिलाषा की सूखी नदिया
अँगनाई में पांव पसारे, बैठी बस घनघोर उदासी

तुम्हारे कुन्तलों को छेड़ने की चाह

तुम्हारे कुन्तलों को छेड़ने की चाहतें लेकर
हवाओं ने घटाओं से पता पूछा तुम्हारा है

गगन की वीथियों में थीं भटकती भोर से संध्या
लगीं थीं ऊबने कोई न साथी साथ में पाकर
अषाढ़ी एक बदली को गली के मोड़ पर देखा
गईं फिर दौड़ पकड़ी बाँह उसकी पास में जाकर

कहा अब है सुनिश्चित कुछ चिकुर लहरायेंगें नभ में
तुम्हारा आगमन इस बात का करता इशारा है

कई दिन हो गये बेचारगी से हाथ को मलते
नहीं कुछ खेलने को साथ में कोई सहेली है
जरा भी बैठती इक पल नहीं है एक मूढ़े पर
यही है बात शायद इसलिये घूमे अकेली है

तुम्हारा चित्र देखा एक दिन पुरबाई के घर में
तभी से हर गली हर मोड़ पर तुमको पुकारा है

बुलाया चाँदनी को नाम ले लेकर तुम्हारा ही
सुरभि से पूछती हर बार उद्गम है कहाँ बोलो
मचल कर सरगमों की रागिनी से ज़िद किये जाती
कहाँ से तान पाई है जरा ये भेद तो खोलो

सुरभि की, चाँदनी की, रागिनी की स्रोत तुम ही हो
तभी बन याचिका इनको उमंगों से निहारा है

कितने गीत और लिखने हैं ?

आह न बोले, वाह न बोले
मन में है कुछ चाह न बोले
जिस पथ पर चलते मेरे पग
कैसी है वो राह न बोले
फिर भी ओ आराध्य ह्रदय के पाषाणी ! इतना बतला दो
कितने गीत और लिखने हैं ?
कितने गीत और लिखने हैं, लिखे सुबह से शाम हो गई
थकी लेखनी लिखते लिखते, स्याही सभी तमाम हो गई

संझवाती, तुलसी का चौरा, ले गुलाब, गुलमोहर चन्दन
मौसम की हर अँगड़ाई से मैने किये नये अनुबन्धन
नदिया, वादी, ताल, सरोवर, कोयल की मदमाती कुहु से
शब्दों पर आभरण सजा कर, किया तुम्हारा ही अभिनन्दन

किन्तु उपासक के खंडित व्रत जैसा तप रह गया अधूरा
और अस्मिता दीपक की लौ में जलकर गुमनाम हो गई

अँधियारी रजनी में नित ही रँगे चांदनी चित्र तुम्हारे
अर्चन को नभ की थाली में दीप बना कर रखे सितारे
दिन की चौखट पर ऊषा की करवट लेकर तिलक लगाये
जपा तुम्हारा नाम खड़े हो, मैने निमिष निमिष के द्वारे

बन आराधक मैने अपनी निष्ठा भागीरथी बनाई
लगा तुम्हारे मंदिर की देहरी पर वह निष्काम हो गई

है इतना विश्वास कि मेरे गीतों को तुम स्वर देते हो
सागर की गहराई, शिखरों की ऊंचाई भर देते हो
भटके हुए भाव आवारा, शब्दों की नकेल से बाँधे
शिल्पों के इंगित से ही तुम उन्हें छंदमय कर देते हो

कल तक मेरे और तुम्हारे सिवा ज्ञात थी नहीं किसी को
आज न जाने कैसे बातें यह, बस्ती में आम हो गईं

जो अधरों पर संवरा आकर, एक नाम है सिर्फ़ तुम्हारा
और तुम्हारी मंगल आरति से गूँजा मन का चौबारा
हो ध्यानस्थ, तुम्हारे चित्रों से रँगकर नैनों के पाटल
गाता रहा तुम्हीं को केवल, मेरी धड़कन का इकतारा

किन्तु न तुमने एक सुमन भी अपने हाथों दिया मुझे है
जबकि तुम्हारे नाम-रूप की देहरी तीरथधाम हो गई

आशीषों की अनुभूति को मिला नीड़ न अक्षयवट का
तॄषित प्राण की तॄष्णाओं को, देखा, हाथ रूका मधुघट का
दूर दिशा के वंशीवादक ! तान जहां सब विलय हो रहीं
आज उसी बस एक बिन्दु पर सांसों का यायावर अटका

स्वर था दिया, शब्द भी सौंपे, और न अब गीतों का ॠण दो
एक बात को ही दोहराते अभिव्यक्तियां विराम हो गईं

अनुभूति को अहसासों को, बार बार पिंजरे में डाला
एक अर्थ से भरा नहीं मन, अर्थ दूसरा और निकाला
आदि-अंत में धूप-छाँह में, केवल किया तुम्हें ही वर्णित
अपने सारे संकल्पों में मीत तु्म्हें ही सदा संभाला

मिली तुम्हारे अनुग्रह की अनुकम्पा, शायद इसीलिये तो
सावन की काली मावस्या, दोपहरी की घाम हो गई

कितने गीत और लिखने हैं ?

दॄष्टि के चुम्बन

दॄष्टि के चुम्बनों ने छुआ जब मुझे
खिलखिलाने लगी देह में रागिनी

सिक्त मधु की फ़ुहारों से होकर नजर
आई हौले से मेरे नयन द्वार पर
ओट से चिलमनों की सरकती हुई
सारी बाधाओं को पंथ की पार कर
साथ अपने लिये एक मुस्कान की
जगमगाती हुई दूधिया रोशनी
दृश्य ले साथ में एक उस चित्र का
दांत में जब उलझ रह गई ओढ़नी

मेरी अनुभूतियों की डगर पर बिछी
पूर्णिमा की बरसती हुई चांदनी

ओस भीगी हुई पांखुरी सा परस
बिजलियां मेरे तन में जगाने लगा
धमनियों में घुलीं सरगमें सैंकड़ों
कतरा कतरा लहू गुनगुनाने लगा
धड़कनों में हजारों दिये जल गये
सांस सारंगियों को बजाने लगी
बँध गया पूर्ण अस्तित्व इक मंत्र में
एक सम्मोहिनी मुझपे छाने लगी

कर वशीभूत मन, वो लहरती रही
वह नजर एक अद्भुत लिये मोहिनी

चेतना एक पल में समाहित हुई
स्वप्न अवचेतनायें सजाने लगीं
वादियों में भटकती सुरभि पुष्प की
मानचित्रों को राहें बताने लगीं
ढाई अक्षर कबीरा के उलझे हुए
व्याख्यायें स्वयं अपनी करने लगे
चित्र लिपटे कुहासे में अंगनाई के
मोरपंखी रँगों से सँवरने लगे

कल्पना के सुखद एक आभास में
आज सुधियाँ हुईं मेरी उन्मादिनी.

आस की डोरियाँ

पंथ पर ज़िन्दगी के नये मोड़ पर
एक दीपक जला है नया साध का
याद के इन्द्रधनुषी सपन, ज्योति की
हर किरण सातरंगीं बनाने लगे

राह में जितने मुझको मिले हमसफ़र
उनका अपनत्व जीने का विश्वास है
योजनों दूर मुझसे रहे हों भले
मन की अँगनाई में उनका आवास है
भावना के पखेरू बने वे कभी
मेरे मानस के आकाश पर आ गये
और अनगिन उमंगें लिये बाँह में
द्वार पर मेघ-मल्हार आ गा गये

उनका पावन परस छेड़ता तार है
मन की सारंगियों से मधुर साज के
स्वर्ण के इक कलश से झरी ओस से
भोर प्राची में जैसे नहाने लगे

डगमगाते कदम का सहारा बने
वे बने हैंदिशा राह जब खो गई
बन के बादल सा कालीन पथ में बिछे
राह कुंठा से जब कंटकी हो गई
ढल गई सांझ जब, बन गये ज्योत्सना
रात में चाँद बन जगमगाने लगे
वे निकटतम रहे हैं, जो मेरे सदा
आज नज़दीक कुछ और आने लगे

सांझ चौपाल पर दीप इक बाल कर
अपनी स्मॄतियों की चादर बिछाये हुए
चंद अनुभूतियों की सुरा ढाल कर
होंठ फिर नाम वे गुनगुनाने लगे

कहकहों के निमंत्रण मिले हैं कभी
तो मिली थीं कभी अश्रु की पातियाँ
यज्ञ की ज्वाल से दीप पाये कभी
और पाईं कभी बुझ चुकी बातियाँ
मेघ झूला झुलाते रहे हैं कभी
फूल गाते रहे गंध की लोरियाँ
तो कभी उंगलियाँ छटपटाती रहीं
बाँध वट पर सकें आस की डोरियाँ

आज संतोष से भर गया मनकलश
आपके स्नेह की पा बरसती सुधा
हर्ष-अतिरेक स्वर पी गया कंठ का
नैन में आ निमिष छलछलाने लगे

राकेश खंडेलवाल
१८ मई २००७

पर न आया उतर कर कोई देवता

वक्त के साथ सब कुछ बदलता रहा
जो न बदले तनिक, लेख थे भाग के

रोज ही राह में दीप इक बाल कर
इक प्रतीक्षा लिये थी प्रतीक्षा खड़ी
पश्चिमी द्वार पर से गुजरता हुआ
सूर्य करता रहा उम्र उसकी बड़ी
स्वप्न के नित्य अंकुर रहे फूटते
नैन की क्यारियों में , मगर दो घड़ी
और बस शेष रह पाईं हैं हाथ में
टूट कर झर रहे मोतियों की लड़ी

आस के कुमकुमे इस तरह टूटते
जल में उठते हुए बुलबुले झाग के

उंगलियाम थक गईं रंग सिन्दूर में
द्वार पर लाभ, शुभ, लाभ लिखते हुए
हर दिशा में बनाते हुए सांतिये
और दीवार रंगीन करते हुए
थाम कर जलकलश, मंत्र से पूर कर
अपनी अँगनाई में जल छिड़कते हुए
इत्र खस के, हिना, केवड़े के लिये
अपने आराध्य को भेंट करते हुए

पांव पर उनके मुर्झाये जो, फूल थे
अपने सिरमौर, सर पर रखी पाग के

ये नहीं था कि हम कर्म से हीन थे
शास्त्र ने जो कहा नित्य करते रहे
व्रत, अनुष्ठान पूजा, कथा भागवत
की डगर पर सदा ही विचरते रहे
राह में जो भी मंदिर मिला, हम वहीं
शीश अपना झुका प्रार्थना कर रहे
और नागा किये बिन, सवाया सदा
मंदिरों में समर्पण लिये , धर रहे

पर न आईं बसन्ती बयारें इधर
फूल खिल पाये, मन के , नहीं बाग के

रवि को सूरज नमन, सोम शिव पूजते
करते मंगल पवन सुत की आराधना
बुध को चन्दा को हमने चढ़ाया अरघ
और गुरु को बॄहस्पति की,की साधना
शुक्र संतोष में बीत कर रह गया
तेल शनि को शनि पर चढ़ाया किये
भोर - संध्या नमन, रात को जागरण
के स्वरों से रहा गूँजता आँगना

पर न आया उतर कर कोई देवता
शब्द कहता हमें चार अनुराग के

केसरी वस्त्र में तन लपेटे हुए
चादरें ओढ़ कर राम के नाम की
वे गुरु बन सिखाते रहे थे हमें
ज़िन्दगी में महत्ता है बस नाम की
मान उनके वचन, ब्रह्म के वाक्य हम
उनका करते रहे थे सदा अनुसरण
और कहते रहे, है हमीं में कमी
जो सफ़लता नहीं कर सकी है वरण

ये न जाना कि अपनी तमस में घिरे
जाग कर स्वप्न देखा किये जाग के

एक विद्रोह से भर गया फिर ह्रदय
तोड़ डाले सभी बंध बाँधे हुए
बोझ अपना उठाने का निश्चय किये
आज तैयार फिर अपने काँधे हुए
चीर कर पंडितों के बनाये हुए
सारे भ्रम जाल हम आज कर्मठ हुए
एक पल में , जो कीकर बिछे राह में
छाँह शीतल लुटाते हुए वट हुए

झोलियाँ मधुकणों से उफ़नने लगीं
दीप बन कर सजे पिंड सब आग के

फिर नया एक सूरज उगा बोध का
छाँट किरणों की कैची से तम का वसन
ज्ञान का दीप प्रज्वल हुआ है नया
स्वेद-कण आंजुरि भर किया आचमन
खोलने पट लगी हैं दिशायें सभी
आईं उपलब्धियां चल स्वत: राह में
गूँजते घोष जय के गगन में नये
पुष्प बिछने लगे आ स्वयं राह में

कुछ न हासिल हुआ था हमें, जब तलक
हम रहे थे भरोसे पड़े भाग के

मातृ दिवस: नमन

आदि से अंत तक
शून्य से ब्रह्म तक
ज़िन्दगी के प्रथम स्वप्न से हो शुरू
आस की डोर में
सांझ में भोर में
तुम ही मेरी सखा, तुम ही मेरी गुरू

तुम ही आराध्य हो
तुम सहज साध्य हो
प्रेरणा धड़कनों के सफ़र की तुम्ही
पंथ सम्भाव्य में
मन के हर काव्य में
एक संकल्प लेकर बसी हो तुम्ही

दर्द की तुम दवा
पूर्व की तुम हवा
चिलचिलाती हुई धूप में छाँह हो
कष्ट की आह में
कंटकी राह में
तुम सहारे की फैली हुई बाँह हो

सॄष्टि आरंभ तुमसे
तुम्ही पर खतम
बस तुम्हारा ही विस्तार सातों गगन
एक तुम आरुणी
एक तुम वारुणी
एक तुम ही हवा एक तुम ही अगन

सॄष्टि की तुम सॄजक
प्यास को तुम चषक
मेरे अस्तित्व का तुम ही आधार हो
बिन तुम्हारे कभी
चन्द्रमा न रवि
है अकल्पित कहीं कोई संसार हो

हर धड़ी, एक क्षण
एक विस्तार, तॄण
जो भी है पास में, तुमने हमको दिया
किन्तु हम भूलते
दंभ में झूलते
साल में एक दिन याद तुमको किया

कैसी है ये सदी
कैसी है त्रासदी
भूल जाते हैं कारण हमारा है जो
हैं ॠणी अन्त तक
प्राण के पंथ पर
साँस हर एक माता तुम्हारी ही हो

कुछ अलग रंग के मुक्तक

मोहब्बत के बगीचे के अगर हम इक शजर होते
ज़माने की अलामत से सदा ही बेखबर होते
ये मुमकिन है कि करते हम, कहीं तकरीर बन लीडर
यकीं है और कुछ होते, न शायर हम मगर होते.

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०

धरम के चोंचले ये सब जो जन्नत में गढ़े होते
जो हैं छोटे वे अपने कद से न ज्यादा बड़े होते
न ही तब मिशनरी होती, न होता धर्म परिवर्तन
जनमते ही धरम सीने पे बन तमगे जड़े होते.

-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०

जब ह्रदय की पीर हमने ढाल शब्दों में बहाई
आपका संदेश आया है बधाई हो बधाई
यों लगा शुभकामनायें आपकी ये कह रही हैं
ज़िन्दगी भर रुक न पाये अब तुम्हारी ये रुलाई


-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-०-

दो कदम जो चले तुम मेरे साथ में

स्वप्न मेरा हर इक हो गया भोर का
दो कदम तुम चले जो मेरे साथ में

ये जो दीवार पर है कलेंडर टँगा
आज भी बस दिवस वो ही दिखला रहा
तुमने मुझसे कहा था कि"मैं प्रीत के
कुछ नये अर्थ तुमको हूँ सिखला रहा"
वह दिवस वह निमिष अब शिलालेख हैं
मेरी सुधियों के रंगीन इतिहास में
मेरी परछाईयों में घुल हर घड़ी
तुम रहो दूर या मेरे भुजपाश में

अब समझने लगा, अर्थ सारे छुपे
और अभिप्राय, हर अनकही बात में

पोर पर उंगलियों के हिना ने लिखा
नाम बस आस के एक अनुराग का
रंग उसमें उतरता गया आप ही
गुनगुनाती उमंगों भरे फाग का
कंगनों में जड़े, मोतियों में पिरो
शब्द संबंध के एक अनुबन्ध के
सांस की क्यारियों में लगीं रोपने
धड़कनें, बीज शत-जन्म-सौगन्ध के

बनके दुल्हन लगी झूमने इक दिशा
रंग सिन्दूर के भर गये साध में

प्राप्ति से भर लबालब छलकने लगी
चाहना की बढ़ाई हुई आंजुरी
कामना बून्द की थी, मिली प्रीत से
बादलों के भरे कोष की गागरी
दूरियाँ गीत गाने मिलन के लगीं
अपने अस्तित्व की आहुति होम कर
दॄष्टि के कक्ष में बन्द होकर मिलन
जगमगाया सितारा बना व्योम पर

आज अँगनाई भी लग पड़ी झूमने
गंध पीकर छुपी संदली गात में.

आज जो बात है वो ही कल भी रहे

बात जो है हमारी तुम्हारी प्रिये
कल भी थी, आज भी, और कल भी रहे

चारदीवारियों में सिमट रह गईं
आज तक कितनी गाथायें हैं प्रेम की
और कितनी लिखी जा रहीं भूमिका
बात करते हुए बस कुशल क्षेम की
कितनी संयोगितायें हुईं आतुरा
अपने चौहान की हों वे वामासिनी
शीरियां कितनी बेचैन हैं बन सकें
अपने फ़रहाद के होंठ की रागिनी

आज शाकुन्तला अपने दुष्यन्त के
अंक से दूर न एक पल भी रहे

सिक्त मधु से अधर, ने अधर पर लिखी
जो लिखी जा चुकी है कहानी वही
वाटिका में ह्रदय की किये जा रहीं
भावनायें पुन: बागवानी वही
योजना ताजमहलों के निर्माण की
हर घड़ी हर निमिष हैं बनाईं गईं
और विद्दोत्तमायें सपन आँज लें
इसलिये बदलियां नित पठाईं गईं

आओ फिर आज दोहरायें हम वे वचन
जो शची ने कभी इन्द्र से थे कहे

आओ हम प्रीत के पंथ पर रीत से
हट चलें और कुछ आज ऐसा करें
कल मिलें दॄष्टियां, डूब जब प्रीत में
उनको मानक बना अनुसरण सब करें
एक अध्याय नूतन लिखें आओ हम
पॄष्ठ जोड़ें नया एक इतिहास में
और जुड़ जायें सन्दर्भ की डोर से
प्रेम गाथाओं के मूक आभास में

नभ की अँगनाई में सन्दली गंध ले
प्रीत पुरबाई बन रात दिन बस बहे

एक नाम बस नाम तुम्हारा

सूरज की पहली अँगड़ाई ने द्वारे पर आन पुकारा
सबसे पहले मेरे होठों पर तब आया नाम तुम्हारा

उगी भोर की प्रथम रश्मि ने खिड़की की झिरियों से आकर
दीवारों पर चित्र तुम्हारे रँगे सात रंगों में जाकर
फूलों की पांखुर से फिसले हुए ओस कण से प्रतिबिम्बित
स्वर्ण मयी आभा से उनका रूप सँवारा सजा सजा कर

सप्त अश्व रथ गति से उभरी हुई हवा ने उन्हें दुलारा
शाश्वत एक मेरे जीवन का, विश्वमोहिनी नाम तुम्हारा

सद्यस्ना:त नदी की लहरें, लगा हुआ माथे पर चन्दन
सुरभि, वाटिका की देहरी से रह रह करती है अभिनन्दन
पूजा की थाली में कर्पूरी लौ, दीपशिखा से मिलकर
करती है मंगल आरतियों से पल पल पर जिसका वन्दन

तॄषित चातकी मन, अम्बर की वीथि वीथि में जिसे पुकारा
मलय गंध से लिखा चाँदनी ने जो, बस वह नाम तुम्हारा


उड़ी नीड़ से परवाजों ने लिखा हवाओं के आँचल पर
यायावर के पाथेयों की सहभागी बनती छागल पर
पिरो स्वरों में अगवानी के बना मंदिरों की आरतियां
दिखा मुस्कुराता हर क्षण में नभ में विचर रहे बादल पर

और क्षितिज की देहरी पर से प्राची ने जिसको उच्चारा
मधुपूरित रससिक्त एक वह प्राणप्रिये है नाम तुम्हारा

गीत श्रॄंगार ही आज लिखने लगा

वेणियों में गुँथा मुस्कुराता हुआ, मोतिया गीत गाने लगा प्यार के
आँज कर आँख में गुनगुनाते सपन, गंध में नहा रही एक कचनार के

चूड़ियों ने खनक, चुम्बनों से लिखी, पत्र पर कंगनों के कहानी कोई
मुद्रिका उंगलियों में सरसने लगी, प्रीत की फिर बनेगी निशानी कोई
हाथ पर एक हथफूल ने फिर हिना ले, लिखी प्यार की इक गुलाबी शपथ
और भुजबंध पर सरसराती हुई आई चूनर उमंगों में धानी कोई

अल्पनायें अलक्तक बनाने लगा, रंग उभरे नये एक त्यौहार के
वेणियों में गुंथा मुस्कुराता हुआ, मोतिया गीत गाने लगा प्यार के

नथ का मोती, हवा संदली से कहे, गंध किसके बदन की लिये हो कहो
बोरला एक टिकुली से रह रह कहे, कुछ तो बोलो प्रिये, आज चुप न रहो
एड़ियाँ अपनी, झूमर उठाते हुए, लटकनों को कहें मौसमों की कसम
आज इस ब्यार की उंगलियाँ थाम कर, प्यार की वादियों में चलो अब बहो

लौंग ने याद सबको दिलाये पुन:शब्द दो नेह के और मनुहार के
आँज कर आँख में गुनगुनाते सपन, गंध में नहा रही एक कचनार के

तोड़िया झनझना पैंजनी से कहे, आओ गायें नये गीत मधुमास के
पायलों के अधर पर संवरने लगे बोल इक नॄत्य के अनकहे रास के
और बिछवा जगा रुनझुनें पांव पर की अलसती महावर जगाने लगा
झालरें तगड़ियों की सुनाने लगीं बोल गलहार को आज विश्वास के

यों मचलने लगा रस ये श्रॄंगार का, गीत लिखने लगा और श्रॄंगार के
लेखनी ओढ़ मदहोशियां कह रही, दिन रहें मुस्कुराते सदा प्यार के

शत शत नमन तुम्हें करता हूँ

कभी क्षीर वारिधि की शोभा, मधुसूदन की कभी दिवानी
कभी उर्वशी कभी लवंगी और कभी हो तुम मस्तानी

तुम्हें देख नीरज ने इक दिन लिख दी थी नीरज की पाती
तुलसी चौरे दीप जला कर देखा था करते संझवाती
पुरबा आकर फुलवारी में वे ही बातें दोहराती है
जो तुम चुपके से कलियों के कानों में आकर कह जातीं

खंड काव्य के सर्ग रहे हों या हो नज़्म किसी शायर की
शुरू तुम्ही से और तुम्हीं पर अंत हुई हर एक कहानी

ओ शतरूपे ! तुम्ही मांडवी, तुम्ही उर्मिला, तुम यशोधरा
भद्रे तुम श्रुतकीर्ति कभी हो, कभी सुभद्रा कभी उत्तरा
कलासाधिके ! नाम तुम्हारे चित्रा रंभा और मेनका
पल में कभी रुक्मिणी हो तुम,कभी रही हो तुम ॠतंभरा

स्वाहा, स्वधा, यज्ञ की गरिमा, वेदों की तुम प्रथम ॠचा हो
श्रुतियों में जो सदा गूँजती, तुम ही वह अभिमंत्रित वाणी

तुम हिमांत के बाद गुनगुनी पहली पहली धूप खिली सी
तुम वीणा के झंकॄत स्वर में जलतरंग हो घुली घुली सी
तुम अषाढ़ के प्रथम मेघ से जागी हुई मयूरी आशा
विभा शरद के शशि की हो तुम, जोकि दूध से धुली धुली सी

तुम अनंग की मधुर प्रेरणा, तुम तंद्रा से जागी ज्योति
पाकर स्पर्श तुम्हारा कुसुमित हो जातीं सुधियां वीरानी

तुम बसन्त की अगवानी में गाती हुई कोयलों का सुर
तुम झंकार, खनकता है जो शचि के पग में शोभित नूपुर
जागी हुई हवा की दस्तक से अँगड़ाई एक घटा की
भाव एक वह तुम, भरती है जिससे संकल्पों की आँजुर

हर स्वर हर व्यंजन भाषा का, है जीवंत तुम्ही से केवल
तुम्हें समर्पित, तुमको अर्पित, छंद छंद कविता कल्याणी

हम किसको परिचित कह पाते

हम अधरों पर छंद गीत के गज़लों के अशआर लिये हैं
स्वर न तुम्हारा मिला, इन्हें हम गाते भी तो कैसे गाते

अक्षर की कलियां चुन चुन कर पिरो रखी शब्दों की माला
भावों की कोमल अँगड़ाई से उसको सुरभित कर डाला
वनफूलों की मोहक छवियों वाली मलयज के टाँके से
पिघल रही पुरबा की मस्ती को पाँखुर पाँखुर में ढाला

स्वर के बिना गीत है लेकिन, बुझे हुए दीपक के जैसा
हम अपने आराधित का क्या पूजन क्या अर्चन कर पाते

नयन पालकी में आ बैठे, चित्र एक जो बन दुल्हनिया
मन के सिन्धु तीर पर गूँजे, जिसके पांवों की पैंजनियां
नभ की मंदाकिनियों में जो चमक रहे शत अरब सितारे
लालायित हों बँधें ओढ़नी जिसकी, बन हीरे की कनियां

यादों के अंधियारे तहखानों की उतर सीढ़ियां देखा
कोई ऐसी किरन नहीं थी, हम जिसको परिचित कह पाते

साँसों की शहनाई की सरगम में गूँजा नाम एक ही
जीवन के हर पथ का भी गंतव्य रहा है नाम एक ही
एक ध्येय है , एक बिन्दु है, एक वही बन गया अस्मिता
प्राण बाँसुरी को अभिलाषित, रहा अधर जो स्पर्श श्याम ही

जर्जर, धूल धूसरित देवालय की इक खंडित प्रतिमा में
प्राण प्रतिष्ठित नहीं जानते, उम्र बिताई अर्घ्य चढ़ाते

सपनों की परिणति, लहरों का जैसे हो तट से टकराना
टूटे हुए तार पर सारंगी का एक कहानी गाना
काई जमे झील के जल में बिम्बों का आकार तलाशे
जो पागल मन, उसको गहरा जीवन का दर्शन समझाना

धड़कन के ॠण का बोझा ढो ढो कर थके शिथिल काँधों में
क्षमता नहीं किसी अनुग्रह का अंश मात्र भी भार उठाते

अनुत्तरित प्रश्न

जो अनुत्तरित रहा अभी तक, तुमने फिर वह प्रश्न किया है
अब मैं उत्तर की तलाश में निशि दिन प्रश्न बना फिरता हूँ

क्या है उचित और अबुचित क्या, फ़िक्र किये बिन देखे सपने
सपने लेकिन सपने ही थे, निमिष मात्र भी हुए न अपने
दिवा स्वप्न की उम्र न पल भर, बनने से ही पूर्व बिगड़ते
धुंधले सभी, नयन पाटल पर किसी चित्र में पाये न ढलने

आँखों के मरुथल को अब तो आदत हुई शुष्क रहने की
आँसू कोई तिरे न, इससे पलक झपकते भी डरता हूँ

दीपक की अभिशापित लौ में पिघल गईं मेरी संध्यायें
आवारा गलियों में भटकीं चन्दा वाली सभी निशायें
पूजा में झुलसे यौवन के बनजारे यायावर पग को
मंज़िल का पथ दिखलाने में अब तक असफ़ल रहीं दिशायें

कुंभकार के चाक रखे हैं मेरे दिवस मॄत्तिका जैसे
जैसे कोई अंगूठे चाहें, वैसे शिल्पों में गढ़ता हूँ

भरते हुए शून्य अंतर में छलना खनका रही चूड़ियाँ
और बढ़ाती हुई भावनाओं से मन के मध्य दूरियाँ
सम्बन्धों की रीती गठरी रह रह याद दिला जाती है
किस पूँजी की बातें करती थीं बचपन में बड़ी बूढ़ियाँ

अस्ताचल के सिन्धु तीर पर खड़ा देख ढलते सूरज को
लौट सकेगा क्या कल फिर यह, रह रह कर सोचा कर
ता हूँ

नये संवत की शुभकामनायें

झील की लहरों पर बिखरता है स्वर्ण
पत्तों पर छा रहा नया नया वर्ण
अँगड़ाई लेते हैं कोयल के गीत
अलगोजे छेड़ रहे मधुरिम संगीत
आँगन में उतर रही सोनहली धूप
संध्या के दर्पण में नया नया रूप
पुरबा की चूनर में मलयज की शान
कलियों के चेहरों पर आई मुस्कान
पगडंडी है लदी हुई गाड़ियों भरी
सरसों की दुल्हन अब पालकी चढ़ी
निशिगंधा खोल रही महकों के द्वार
खुनक भरे मौसम में डूबा घरबार
भरा प्रेम पत्रों से मेंहदी ने हाथ
छत ने की आँगन से मीठी सी बात
ठिठुरन पर आज चढ़ा देखिये बुखार
चैती इस पड़वा ने खड़काया द्वार.
नव संवत की शुभकामनायें

शंख ने गूँज कर शब्द नभ पर लिखा

एक अंकुर हुआ भोर का प्रस्फ़ुटित
यों लगा ये धरा जगमगाने लगी

रात को पी गई एक उजली किरन
इक नये रंग में ढल उषा सज गई
पंछियों ने कहा मुस्कुराते हुए
चांद ने बात जो थी दिशा से कही
झील में से उमड़ता हुआ, नीर को,
सूर्य, पिघला हुआ स्वर्ण करता हुआ
और दिन का टँगे कैनवस पर नया
चित्र रंगों में सजता सँवरता हुआ

खेत ने था पुकारा, महज इसलिये
पायलें गीत पथ को सुनाने लगीं

फूल की पांखुरी पर थिरकती हुई
रात भर जो पिघल कर बही चाँदनी
सातरंगी लिये तूलिका लिख रही
मलयजी गंध की इक मधुर रागिनी
घाट वाराणसी के सजग हो उठे
मंत्र के शब्द जीवंत करते हुए
और उन्नत ललाटों पे अंकित हुए
रोलियाँ और चंदन निखरते हुए

आरती, प्रज्वलित दीप की ज्योति के
राग के साथ स्वर को मिलानेलगी

शंख ने गूँज कर शब्द नभ पर लिखा
पट खुले मंदिरों के महाकाल के
कोशिशों में अगरबत्तियां-धूप हैं
लेख विधना के बदलें लिखे भाल के
उठ अजानें चलीं एक मीनार से
चर्च से सरगमें घंटियों की बहीं
ग्रंथसाहिब से उठती गुरुवाणियों
से सुगन्धित हुई नवदिवस की कली

आस्थायें जगी लेके संकल्प को
अपनी अँगनाई रसमय बनाने लगीं

ग्रहण कोई लग न पाये

अर्चना की दीप तो तूने जलाया है उपासक
देखना अब वर्तिका पर ग्रहन कोई लग न पाये

प्राथमिक उपलब्धियों को ध्येय मत कर साधना का
जान ले तू मन लुभाती हैं हज़ारों व्यंजनायें
ध्यान विश्वामित्र होकर, केन्द्रित जब जब हुआ है
भंग करने को तपस्या, आईं तब तब मेनकायें

आहुति को आँजुरि में धड़कनों का भर हविष तू
तब सुनिश्चित साधना का साध्य तेरे पास आये

मिल रहा है जो प्रथम आव्हान पर तुझको पुजारी
है नहीं वह, साधना जिसके लिये तूने संवारी
कर स्वयं को ही हविष,तब ही चढ़ेगा अग्नि रथ पर
और पाये, कामना जिसके लिये रह रह पुकारी


लेखनी विधि की करे हस्ताक्षर तब शीश तेरे
और तू बन कर सितारा ध्रुव सरीखा जगमगाये

शीश पर तेरे सजा है जो मुकुट, केवल क्षणिक है
याचकों की बाध्यता ही प्रप्ति के पथ की बधिक है
यज्ञ करता पूर्ण जो भी है अधूरापन तपस्वी
मान ले पथ में सदा उपलब्धि से बाधा अधिक है

धैर्य रख कर एक ही पथ पर चलाचल ओ पथिक तू
हो नहीं विश्वास क्षय, चाहे समय नित आजमाये

ढाई अक्षर दूर

भटक गया हरकारा बादल, भ्रमित कहाँ, मैं सोच रहा
मेरे घर से ढाई अक्षर दूर तुम्हारा गांव है

मेघदूत को बाँधा है मैने कुछ नूतन अनुबन्धों में
और पठाये हैं सन्देशे सब, बून्दों वाले छंदों में
जो मधुपों ने कहे कली से उसकी पहली अँगड़ाई पर,
वे सबके सब शब्द पिरो कर भेजे मैने सौगंधों में

किन्तु गगन के गलियारे में नीरवता फ़ैली मीलों तक
नहीं दिखाई दे बादल की मुट्ठी भर भी छांव है

सावन की तीजों में मैने रसगंधों को संजो संजो कर
मदन शरों से झरते कण को हर अक्षर में पिरो पिरो कर
गन्धर्वों के गान, अप्सराओं की झंकॄत पैंजनियों में
से उमड़े स्वर में भेजा है, उद्गारों को डुबो डुबो कर

चला मेरे घर से भुजपाशों में भर कर मेरे भावों को
और कहा पूरे रस्ते में नहीं उसे कुछ काम है

पनघट ने गागर भर भर कर, मधुरस से सन्देशे सींचे
सूरज ने ले किरण , किनारी पर रंगीन चित्र थे खींचे
केसर की क्यारी में करती अठखेली जो चंचल पुरबा
करते हुए अनुसरण उनका साथ चली थी पीछे पीछे

बादल अगर नहीं भी लाये, तुम्हें विदित है सन्देशों में
लिखा हुआ है, अन्तर्मन में लिखा तुम्हारा नाम है

रात ने जो बाँसुरी छेड़ी

रागिनी उल्लास के रह रह सुमन चुनने लगी है
रात ने जो बाँसुरी छेड़ी सुबह सुनने लगी है

प्रीत होकर मलयजी अब स्वप्न करती है सुनहरे
यामिनी-गंधा कली देती निरंतर द्वार फेरे
हर दिशा उमगी हुई है आस के अंकुर उपजते
और अंकित कर बहारों को हवा के साथ चलते

फिर बनी तारा चकोरी चाँद का दर्पण उठा कर
नयन में अपने रुपहरी स्वप्न फिर बुनने लगी है

पाटलों पर ले रही अँगड़ाइयाँ अब ओस आकर
रश्मियों को चूमती है स्वर्ण निर्झर में नहा कर
पाखियों के पंख से उड़ते हुए झोंके हवा के
झर रहे हैं पेड़ की शाखाओं से वे गुनगुनाते

आरती में गूँजती सारंगियों की तान लेकर
मुस्कुराहट की गली से धुन नई उठने लगी है

बिछ रही हैं पंथ में दरियां नये आमंत्रणों की
वाटिकाओं ने मधुप के साथ जो भेजे कणों की
टेरती है गुनगुनी सी धूप बासंती बहारें
झील को दर्पण बना कर रूप को अपने निहारें

उंगलियाँ थामे किसी ॠतुगंध वाली भूमिका की
यह शिशिर की पालकी अब द्वार से उठने लगी है.

बिना शीर्षक

जिसकी सुंदरता का वर्णन शब्दों में सिमट नहीं पाता
वाणी असमर्थ रही कहने में जिस चिर यौवन की गाथा
प्रकॄति ने अपना रूप पूर्ण जिस प्रतिमा में साकार किया
शतरूपे हर इक कविता में तुमसे ही काव्य उपज पाता


-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-0-



उर्वशी ने कर दिये हस्ताक्षर जिसके अधर पर

और सम्मोहन सिखाया मेनका ने ही स्वयं हो

बान्ध कर नूपुर पगों में नॄत्य रम्भा ने सिखाया

एक कवि की कल्पना की कल्पना शायद तुम्ही हो.

होली

पीले टेसू खिले पीली सरसों हँसी,गुनगुना चूनरी और धानी हुई
ओढ़ सिन्दूर सन्ध्या लजाने लगी,
मुस्कुराती दुपहर आसमानी हुई
चूड़ियां लाल पहने उषा की दुल्हन
आँज काजल निशा होती खंजननयन
रंग होली के बिखरे हैं चारों तरफ़, यों लगा है प्रकॄति भी दिवानी हुई

होली के अवसर पर अनन्य शुभकामनायें

बदमिजाज की चन्द हवायें

ये जो गली मोहल्ले में हैं बदमिजाज की चन्द हवायें
आओ उनको कहें रँगें वे, अब होली के रंगों में

शब्दों के जो तीर बींधते इक दूजे को सीने में
उनको फूल बना बरसायें , अब फ़ागुनी उमंगों में


उड़ने दो गुलाल रंगों में रँगें अबीरों के बादल
थाप ढोल की घुलती जाये झूम झूम कर चंगों में

गलियों से गलियों का नाता, कब दीवारों से टूटा
किसको हासिल कभी हुआ कुछ, चौराहों के दंगों में

ये कपोत जो उड़े गगन पर आज, शहादत देते हैं
हमने उमर गुजारी अपनी, धार मापते खंगों में

काबे में हो या हो फिर वह गिरजे की दहलीजों का
नजर नजर में फ़र्क भले हो, फ़र्क नहीं है संगों में

सूरज को तहखानों में

दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद में बुतखानों में
ढूंढ़ रहे हो सूरज को तुम अंधियारे तहखानों में

राजमुकुट ने कब चूमा है आम आदमी को आकर
ऐसी बातें मिलती केवल माजी के अफ़सानों में

जनसत्ता है नारे बाजी, प्रजातंत्र है बहलावा
सिमटी हुई देश की सत्ता, केवल चंद घरानों में

राजनीति के जटिल गणित का सीधा साधा समीकरण
सारे उत्तर साम दाम में , साकी के यारानों में

देश-प्रेम की जन सेवा की उम्मीदें बेकार हुईं
टके सेर भी दाम न मिलता अब इनका दूकानों में

ये उबाल भी दो छींटे खाकर ठंडा हो जायेगा
कहां आंधियाँ होती काफ़ी हाउस के तूफ़ानों में

कैसे ख्वाब सजाये हो तुम रजनीगंधा महकेगी
नागफ़नी के बीज तुम्ही ने बोये हैं उद्यानों में

यह बेजी की कारस्तानी

चिट्ठा लिख कर गया फ़ंसाया, यह बेजी की कारस्तानी
सोचा, मुझको लिखनी होगी इसी बहाने एक कहानी
लेकिन गद्य नहीं लिखता मैं, सीमाओं से अपनी परिचित
अब बतलाओ सही लिखा या फिर लिख कर की है नादानी




१.आपकी सबसे प्रिय पिक्चर कौन सी है? क्यों?

पिछले पच्चीस वर्षों में कोई फ़िलम, मैने गंभीर होकर के देखी नहीं
आप विश्वास चाहे करें न करें, किन्तु सच कह रहा, है हकीकत यही
देती आनंद, चेतन को झकझोर कर,तात्कालिक परिस्थिति बताती हुई
होके मज़बूर मुझको भुलाया गया, गीत गाता हूँ मैं आज भी बस वही

साथ इसके,किसी से न कहना कभी, बात अभिमान की मैं नहीं कह रहा
ए रिवर रन थ्रू इट, तुम्हें है पता, एक निर्झर कभी था यहाँ बह रहा
और ज्यादा नहीं मैं बता पाऊंगा, देखता हूँ तभी, जब समय मिल सके
और टीवी दिखाता है जो आजकल यों लगा है कि बस यातना सह रहा



२.आपके जीवन की सबसे उल्लेखनीय खुशनुमा घटना कौन सी है ?

पहली बार मंच पर नीरज ने मुझको आशीष दिया जब
उम्र यही थी तेरह चौदह, , और सराहा श्री व्यास ने
लगभग चार दशक बीते हैं, लेकिन याद अभी हैं ताजा
सांझ सवेरे, चित्र आज तक, आँखों के है रहा सामने



३.आप किस तरह के चिट्ठे पढ़ना पसन्द करते/करती हैं?

कविता, लेख, कहानी सब ही पढ़ता, जितना समय मिल सके
मनपसंद मंतव्य, साथ में फ़ुरसतिया के लंबे चिट्ठे
कभी बताशे पानी वाले, उड़न तश्तरी औ' प्रत्यक्षा
कविता वाले लिखूँ अगर सब मेरे ही छूटेंगे छक्के

किन्तु साफ़ यह बतलाता हूँ सीमित समय पास है मेरे
दफ़्तर में रहती सदैव ही गहन व्यस्तता मुझको घेरे
घर आकर बाकी कामों से जो बचता, उसमें पढ़ता हूँ
शेष समय यों कटा लेखनी टूटे फ़ूटे शब्द चितेरे

४.क्या हिन्दी चिट्ठेकारी ने आपके व्यक्तिव में कुछ परिवर्तन या निखार किया?

यही कहूँगा परिचय की सीमायें और अधिक फैलीं हैं
यहाँ कनाडा से लेकर के गुड़गांवा, रांची देहली है
इधर कुवैत और यू ए ई, कम्पाला भी जुड़ा आजकल
निखर रही हैं गज़ल देख कर नई नई निशि दिन शैली है

५.यदि भगवान आपको भारतवर्ष की एक बात बदल देने का वरदान दें, तो आप क्या बदलना चाहेंगे/चाहेंगी?

नीति प्रदूषित आरक्षण की सबसे ज्यादा मुझे अखरती
ऐसे परिवेशों में प्रतिभा, जाति भेद के बोझों दबती
मुझे विदित है सहमत मुझसे शायद अधिक लोग न होंवे
पर यह मेरी एक धारणा, जो समाज को सत्य बदलती

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अब जैसे परिपाटी है मैं यह श्रंखला बढ़ाता आगे
कुंअर भावना जी, निनाद के अभिनव को देता आवाज़ें
प्रभात टंडन जी तीजे,, चौथे पर रंजू लिख देंगी
फिर दिव्याभ छेड़ दें आकर सरगम के स्वर सज्जित बाजे


प्रश्न पाँच यह- क्यों लिखते हो, क्या लिखने को प्रेरित करता
कला पक्ष से भाव पक्ष का कितनी दूर रहा है रिश्ता
कितना तुम्हें जरूरी लगता,लिखने से ज्यादा पढ़ पाना
मनपसंद क्यों विधा तुम्हारी, और किताबों का गुलदस्ता.

चाँदनी रात के

ढूँढ़ते ढूँढ़ते थक गई भोर पर
मिल न पाये निमिष चाँदनी रात के

डायरी के प्रथम पॄष्ठ पर था लिखा
नाम जो, याद में झिलमिलाया नहीं
तट पे जमुना के जो थी कटी दोपहर
चित्र उसका नजर कोई आया नहीं
बूटे रूमाल के इत्र की शीशियाँ
फूल सूखे किताबों की अँगनाई में
चिन्ह उनका नहीं दीख पाता कोई
ढल रहे एक धुंधली सी परछाईं में

उंगलियों से हिना पूछती रह गई
कुछ भी बोले नहीं कंगना हाथ के

पॄष्ठ इतिहास के फड़फड़ाते रहे
कोई गाथा न आई निकल सामने
तट समय सिन्धु का पूर्ण निर्जन रहा
चिन्ह छोड़े नहीं हैं किसी पांव ने
ओढ़नी से गगन की सितारे झड़े
और कोहरा क्षितिज पर उमड़ता रहा
भाग्य शिल्पी लिये भौंथरी छैनियां
एक प्रतिमा का आकार गढ़ता रहा

और बुनती अमावस रही फिर निशा
दीप की बातियों पर धुआं कात के

क्यारियों में दिशाओं की बोते रहे
बीज, उग आयेंगी रंग की कोंपलें
साध सिन्दूर सी, केसरी कामना
सुरमई कल्पनाओं की कलिया खिलें
सींचे थी भावनाओं की मंदाकिनी
पर दिशा जोकि बंजर थी बंजर रही
रेख पतली सी संशय की जो एक थी
ऐसी उमड़ी कि बन कर समन्दर बही

नागफ़नियों के छोरों पे टिक रह गये
जितने सन्दर्भ थे सन्दली गात के

और बस ढूँढ़ती रह गई भोर नित
खो गये मित्र सब चाँदनी रात के

सर्दी, चाय की केतली और प्रत्यक्षा की टिप्पणी

नहीं छोड़ती स्याही चौखट कलम की
नहीं स्वर उमड़ता गले की गली में
लिखूँ कैसे कविता तुम्ही अब बताओ
घुले भाव सब चाय की केतली में

ठिठुर कँपकँपाती हुई उंगलियां अब
न कागज़ ही छूती, न छूती कलम ही
यही हाल कल था, यही आज भी है
है संभव रहेगा यही हाल कल भी

गये दिन सभी गांव में कंबलों के
छुपीं रात जाकर लिहाफ़ों के कोटर
खड़ीं कोट कोहरे का पहने दिशायें
हँसे धुंध, बाहों में नभ को समोकर

न परवाज़ है पाखियों की कहीं भी
न मिलता कबूतर का कोई कहीं पर
शिथिलता है छाई, लगा रुक गया सब
न कटती है सुबह, न खिसके है दुपहर

निकल घर के बाहर कदम जो रखा तो
बजीं सरगमें दाँत से झनझनाकर
हवा उस पे सन सन मजीरे बजाती
जो लाई है उत्तर के ध्रुव से उठाकर

न दफ़्तर में कोई करे काम, चर्चा
यही आज कितना ये पारा गिरेगा
पिये कितने काफ़ी के प्याले अभी तक
भला कितने दिन और ऐसा चलेगा

न लिखने का दम है न पढ़ने की इच्छा
ये सुईयाँ घड़ी की लगे थम गई हैं
मिलें आपसे अब तो सप्ताह दस में
ये कविता मेरी आजकल जम गई है

१००वीं प्रस्तुति --अंतरे खो गये

जब भी चाहा है मैने लिखूँ गीत मैं
शिल्प मुखडे हुए, अंतरे खो गये

मन की गहराईयों से उठी भावना
पर अधर की सतह तक नहीं आ सकी
कुनमुनाती हुई मेरी सुधियाँ रहीं'
ताल पर सरगमों की नहीं गा सकी
नैन की प्यालियों में उफ़नते रहे
स्वप्न संवरे नहीं एक पल के लिये
आग थी तेल था और बाती भी थी
पर नहीं जल सके रास्ते में दिये

द्वार जब खटखटाया मेरा भोर ने
थक के सारे के सारे प्रहर सो गये

भोज पत्रों पे लिक्खी कहानी थी जो
आईं इतिहास से वे निकल सामने
मैथिली होके तत्पर प्रतीक्षित रही
ली न अग्नि-परीक्षा मगर राम ने
मुद्रिका ढूँढ पाई न शाकुन्तले

और दुष्यन्त जलता अकेला रहा
प्रश्न हर युग में दमयंतियों ने किये
किन्तु उत्तर में कुछ न नलों ने कहा

साक्ष्यदर्शी समझते जिन्हें हम रहे
वे सभी गुम अंधेरों में हैं हो गये

पंचतन्त्री कथाओं में उलझे रहे
किन्तु जाने नहीं आज तक नीतियाँ
बंद पलकें किये अनुसरण कर रहे
जो बना कर गये पूर्वज रीतियाँ
नींव रखते रहे हैं कई बार, पर
कोई निर्माण पूरा नहीं कर सके
चाहतों के चषक रिक्त थे सामने
किन्तु इक बूँद भी हम नहीं भर सके

सावनी मेघ आये तो थे घिर मगर
बरसे बिन ही हवा में विलय हो गये

चाँदनी की गली में सितारे उगे
कोई पहचान अपनी नहीं पा सके
सरगमों की तराई में खिलते हुए
राग नूतन कोई स्वर नहीं गा सके
धूप की कामनायें किये जा रहे
छोड पाये घटाओं का साया नहीं
हम प्रतीक्षा बहारों की करते रहे
जिनको हमने कभी था बुलाया नहीं

राह की शून्यता देखते, सोचते
इस डगर के पथिक सब, कहाँ खो गये.

पूर्णिमा की बहन

ज्योत्सना का पहन कर हिमानी वसन
आई है पूर्णिमा की ये छोटी बहन
ओढ़ मुस्कान की चम्पई चूनरी
मेरी अँगनाई को आज महका रही

एक नीहारिका से पता पूछती
आई कर पार नभ की ये मंदाकिनी
व्क पुच्छल सितारे को कर साज,थी
राह भर गुनगुनाती रही रागिनी
तारकों में जगा रोशनी झिलमिली
मोड़ पर उनके कंदील रखती हुई
मुट्ठियों की झिरी से फिसलती हुई
रेत सी, हर दिशा में बिखरती हुई

गंध की ओस बन कर हवा में घुली
अर्थ मुझको बहारों का समझा रही

वो अजन्ता के दर्पण के प्रतिबिम्ब सी
भित्तिचित्रों से उतरी एलोरा लगे
बन प्रणेता रँगे फिर से मीनाक्षी
प्रेरणा शिल्प कोणार्क की, बन सजे
पारिजातों की कलियों की अँगड़ाई सी
रश्मि के चुम्बनों से उठी जागकर
चित्रलेखा की ओढ़ी हुई ओढ़नी
सोम लाया हो उससे जिसे माँगकर

उर्वशी मेनका और रंभा सभी
एक ही यष्टि में ढल,लगा आ रहीं

मन की आराधना के प्रथम मंत्र सी
हो प्रथम स्वप्न ज्यों प्रीत के गांव का
ब्रह्म-बेला तपोभूमि की पुण्य हो
हो या पर्याय रति के हर इक नाम का
भावनायें उमड़ती ह्रदय में मगर,
न विदित आदि क्या है, कहाँ अंत है
शब्द्कोषों में उपमायें वर्णित नहीं
कल्पना आज सॄष्टा की जीवंत है

आज भाषा, स्वरा,अक्षरा मूर्त हो
लग रहा सामने आ खड़ी गा रहीं

सर्दी का मौसम

सहमे झरने खड़े, सो गईं झील भी देह
 के साज पर सर्दियाँ गा रहीं 
 ओढ़ मोटी रजाई को लेटे रही 
धूप, लाये कोई चाय की प्यालियाँ
 हाथ की उंगलियों को मिले उष्णता 
इसलिये थी बजाती रही तालियाँ
 भोर कोहरे का कंबल लपेटे हुए 
आँख मलती हुई आई अलसाई सी 
ठिठुरनों में सिमटती हुई रह गई 
झांक पाई न पूरब से अरुणाई भी 
 और हिमवान के घर से आई हवा 
ऐसा लगता नहीं अब कहीं जा रही 
 पूर्णिमा वादियों में पिघल बह रही 
रात पहने हुए शुभ्र हिम का वसन
 कुमकुमों से टपकती हुई रोशनी
 को लपेटे हुए धुंध का आवरण 
राह निस्तब्ध, एकाकियत को पकड़
 आस पदचिन्ह की इक लगाये हुए 
पेड़ चुप हैं खड़े, शत दिवस हो गये 
पत्तियों को यहाँ सरसराये हुए 
 शीत की ले समाधी नदी सो गई 
तट पे ,अलसी शिथिलता लगा छा रही 
 तार बिजली के दिखते हैं मोती जड़े 
स्तंभ पर चिपके फ़ाहे रुई के मिलें 
देहरी चौखटें सब तुषारी हुईं
 कोशिशें कर थके द्वार पर न खुलें 
लान, फ़ुटपाथ,सड़कें सभी एक हैं 
क्या कहाँ पर शुरू, क्या कहां पर खतम
 एक मन ,इक बदन, एक जाँ हो गये 
सब पहन कर खड़े श्वेत हिम का वसन
 और हम थरथरा देखते रह गये 
कहता टीवी कि लो गर्मियां आ रहीं

गाँव का व्यवहार क्या हो

( गीत सुनने के लिये कॄपया ध्वनि चालू कर लें )

प्रश्न तो कर लूं
मगर फिर प्रश्न उठता है
कि मेरे प्रश्न का आधार क्या हो
पार वाली झोंपड़ी से गांव का व्यवहार क्या हो ?

भावना के दायरे में जो सिमट बैठीं अचानक
दूरियों के मापने का कौन सा प्रतिमान मानें
अजनबियत की गहन गहरी बिछी इन घाटियों में
पार जाने का सही है कौन सा पथ आज जानें
व्योम से लेकर धरा तक, स्वप्न के सेतु बनाकर
चल रहे जो खींच कर हम आस के खाके सुनहरी
उन पथों पर भोर कर लें या कि संध्या कोई बोले
क्या भरें आलाप, छेड़ें बाँसुरी की याकि तानें

छिन्न मस्ता आस्था ने सौंप रखे ज़िन्दगी को
दर्द के बोझिल पलों का आखिरी उपचार क्या हो ?

टूटते अनुबंध की कड़ियाँ पिरोते रात बीती
शेष जो सौगंध के मानी रहे वो हाशियों पर
बीज बो नित जो उगाईं चाहतों के रश्मिरथ पर
किस गगन के जलद चल कर आ सकेंगे रास्तों पर
चल रहे जिन उंगलियों को थाम कर हम इस सफ़र में
है सुनिश्चित क्या, कि मंज़िल तक हमारा साथ देंगी
छटपटातीं ताकतीं सुधियाँ दिशाओं के झरोखे
नाम किसका लिख सकेगा बिन पते की पातियों पर

ज़िन्दगी के मंच पर बिखरीं हजारों पटकथायें
कशमकश है इन सभी का एक उपसंहार क्या हो ?

हो गई विस्मॄत शपथ जो अग्नि के सन्मुख उठी थीं
हमकदम सब राह के थक दूर पीछे रह गये हैं
क्षुद्र टुकड़ों में बंटी है संस्कॄतियों की धरोहर
श्वास के अवलंब सारे आंधियों में बह गये हैं
मान कर जिन पत्थरों को देवता पूजा किये हम
प्राण उनमें क्या कभी कोई पुजारी पा सकेगा
कल्पना के इन्द्रधनुषों को तलाशें सात अंबर
रंग थे जिनमें बसे, वे महल सारे ढह गये हैं

रूठ कर बैठे पलों को ज़िन्दगी के जो मना ले
प्रश्न लेकर घूमता हूँ एक वो मनुहार क्या हो ?

पार वाली झोंपड़ी से गांव का व्यवहार क्या हो.



यादों के दीपक

सिरहाने के तकिये में जब ओस कमल की खो जाती है
राह भटक कर कोई बदली, बिस्तर की छत पर छाती है
लोरी के सुर खिडकी की चौखट के बाहर अटके रहते
और रात की ज़ुल्फ़ें काली रह रह कर बिखरा जाती हैं

तब सपने आवारा होकर अम्बर में उडते रहते है
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

पनघट की सूनी देहरी पर जब न उतरती गागर कोई
राह ढूँढती इक पगडन्डी रह जाती है पथ में खोई
सुधियों की अमराई में जब कोई बौर नहीं आ पाती
बरगद की फ़ुनगी पर बौठी बुलबुल गीत नहीं जब गाती

और हथेली में किस्मत के लेखे जब बनते मिटते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

इतिहासों के पन्नों में से चित्र निकल जब कोई आता
रिश्तों की कोरी चूनर से जुड जाता है कोई नाता
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये

और क्षितिज पर घिरे कुहासे में जब इन्द्रधनुष दिखते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

आदमी से बनाया हमे झुनझुना

अपने गुलदान में रोज उम्मेद के फूल लाकर नये हम सजाते रहे
सांझ के साथ झरती रहीं पांखुरी, चाह की मैय्यतें हम उठाते रहे

आफ़ताबों के झोले में मिल न सकी, मेरी तन्हाई शब को कोई भी सहर
माहताबों से हासिल न कुछ हो सका, जुगनुओं की तरह टिमटिमाते रहे

बिक रहे हम सियासत की दूकान में, चंद श्लोक हैं, चार छह आयतें
जिसको जैसी जरूरत हमारी रही, दाम वैसे ही आकर लगाते रहे

कोई बाकी नहीं जो फ़रक कर सके कौन खोटा यहां है, खरा कौन है
मांग सिक्कों की बढ़ती रही इसलिये जो मिला सामने वो चलाते रहे

जिनको हमने बनाया हुआ रहनुमा, आज फ़ितरत उन्ही की बदलने लगी
आदमी से बनाया हमें झुनझुना, जब भी चाहा हमें वे बजाते रहे

मैं प्रतीक्षित-कोई तो हो

आँजुरि में जल भरे अक्षत लिये , मैं हूँ प्रतीक्षित
कोई आकर मंत्र बोले और मैं संकल्प लूँ नव

शर्मग्रंथों में लिखीं जो आचरण की संहितायें
अर्थ जिनके दे उदाहरण जो हमें आकर बतायें
योगक्षेमं वासुधैव<. शब्द से होते परे हैं
सत्य का विस्तार होता, सार्थक जो कर बतायें

वे पुरोहित मिल सकें यदे एक दिन भागीरथी तट
तो निमिष के आव्हानों पर लुटा दूँ कल्प मैं अब

कोई हो जिसने कभी हो नीतियों का अर्थ आँका
शांति क्या केवल कबूतर, पत्तियों की एक शाखा
व्याकरण, निरपेक्षता का जो कभी समझा सका हो
और माने पुत्र मानव है उसी बस एक मां का

वो अगर वामन मिले, मैं बन बलि निर्वास ले लूँ
धड़कनों की रागिनी के तार को विस्तार दूँ तब

जानता हूँ स्वप्न सारे शिल्प में ढलते नहीं हैं
यज्ञ-मंडप में सजें जो पुष्प नित खिलते नहीं हैं
कल्प के उपरांत ही योगेश्वरों को सॄष्टि देती
औ' उपासक को सदा आराध्य भी मिलते नहीं हैं

किन्तु फिर भी मैं खड़ा हूँ, दीप दोनों में सजा कर
कोई तो आगे बढ़ेगा, आज मैं आवाज़ दूँ जब

चढ़ रही उमर के

संभल संभल जब उठते हैं पग, अमराई की राहगुजर पे
अरे रूपसि ! निश्चित मानो, लक्षण हैं चढ़ रही उमर के

धुंधली आकॄतियों के बिम्बों में मन उलझ उलझ जाता है
एक अधूरा छंद अधर पर पाहुन बन बन कर आता है
अभिलाषा की हर अँगड़ाई टूट टूट कर रह जाती है
निमिष मात्र भी एक बिन्दु पर ध्यान नहीं रुकने पाता है

हर इक सांझ लिये आती है बाँहों में सपने भर भर के
अरी वावली ! ध्यान रहे ये लक्षण हैं चढ़ रही उमर के

अनजाने ही खिंच आती हैं चेहरे पर रेखायें लाज की
गडमड होकर रह जाती हैं, बातें कल की और आज की
फूलों की पांखुर को करते, आमंत्रित पुस्तक के पन्ने
मन को करती हैं आलोड़ित ,बात रीत की औ; रिवाज की

मीठी मीठी बातें करने लगें रंग जब गुलमोहर के
सुनो रुपसि ! याद रहे, यह लक्षण हैं चढ़ रही उमर के

मन को भाने लगती हैं जब इतिहासों की प्रेम कथायें
चैती के आंगन में आकर सावन की मल्हारें गायें
पुरबाई के झोंके भर दें रोम रोम में जब शिंजिनियां
सात रंग पलकों की देहरी पर आकर अल्पना बनायें

आतुर हों जूड़े में सजने को जब फूल उतर अंबर के
रूपगर्विते ! मानो तुम ये लक्षण हैं चढ़ रही उमर के

ओ अपरिचित ! आओ हम तुम

वर्त्तिका के प्राण के उत्सर्ग की पहली कहानी
ज्योति की अँगड़ाइयों में दीप की ढलती जवानी
मैं अगर गाऊँ नहीं तो कौन इनको शब्द देगा
और फिर दोहराई जायेगी वही गाथा पुरानी

तो अपरिचित ! आओ हम तुम शब्द से परिचय बढ़ायें
कुछ कहो तुम, कुछ कहूँ मैं, साथ मिल कर गीत गायें

अर्चना के मंत्र में जो गूँजता है वह प्रथम स्वर
साधना के केन्द्र के आव्हान का जो प्रथम अक्षर
जोड़ता जो एक धागा है, उपासक से उपासित
प्रीत की आराधना का एक जो है चन्द्रशेखर

इन सभी की बाँह को थामे हुए आगे बढ़ें हम
जा रही हैं जो गगन तक, सीढ़ियों पर पग उठायें

यज्ञ में संकल्प के जल से भरी वह एक आंजुर
देवता के पांव चूमे फूल की जो एक पांखुर
नॄत्य में देवांगना के झनझनाता एक घुंघरू
रास को आवाज़ देती कुंज की वह एक बांसुर

कर गये प्रारंभ जो आधार की रख कर शिलायें
आओ उन पर हम नये प्रासाद मिल जुल कर बनायें

एक को आवाज़ दें हम, दूसरे को बीन लायें
शब्द यों क्रमबद्ध करके होंठ पर अपने सजायें
तार की आलोड़ना में मुस्कुराती सरगमों को
रागिनी में हम पिरोकर,स्वर संवारें गुनगुनायें

हैं क्षितिज के पार जो संभावनायें चीन्ह लें हम
और उनसे ज्योर्तिमय कर लें सभी अपनी दिशायें

ओ अपरिचित आओ हम तिम शब्द से परिचय बढ़ायें

घुल रही आस्था आज विश्वास में

ताल में ज्यों कमल पत्र पर से फिसल
ओस की बून्द लहरें जगाने लगी
नाम तेरे ने मेरे छुए जो अधर
सरगमें बज उठी हैं मेरी सांस में

बज रही आरती में बँधा शब्द हर
इक जुड़ा है हुआ एक ही नाम से
रंग भरती रही भोर तक है निशा
एक ही चित्र में सुरमई शाम से
एक ही गंध को भर के भुजपाश में
संदली ये हवा लेती अँगड़ाईयां
एक नूपुर की झंकार को थाम कर
गुनगुनाती रही रोज अँगनाईयां

एक आकार वह, स्वप्न से मूर्त हो
आ गया है अचानक मेरे पास में

बादलों के कहारों के कांधे चढ़ी
आई भूली हुई याद की पालकी
रूप की धूप में जगमगाती हुई
एक बिंदिया चमकती हुई भाल की
झीना परदा उड़ा एक पल के लिये
जागने लग पड़ी है मधुर भावना
प्रीत लिखने लगी है ह्रदय पर नये
एक अध्याय की आज प्रस्तावना

भाव के निर्झरों से उमड़ती हुई
आस्था घुल रही आज विश्वास में

रश्मियों से गुंथी गंध की वेणियां
इन्द्रधनुषी रँगे पंख मधुकीट के
कुन्तलों में मचलती हवा पूरबा
स्वप्न साकार करती है मन ढीठ के
पुष्पराजों की अँगड़ाईयों से अधर
जब खुले तो सुधा की बही जान्हवी
हो गईं एक पल में तिरोहित सभी
जो सुलगती हुई प्राण में प्यास थी

चित्र जब से तेरे, पाटलों पर बने
रात दिन ढल गये, मेरे, मधुमास में




चाँदनी एक दिन

बन के दुल्हन हमारी गली में रही मुस्कुराती हुई चाँदनी एक दिन
चूमती थी अधर आ के मुस्कान की गुनगुनाती हुई रागिनी एक दिन

आज यादों की सुलगीं अगरबत्तियां, गंध में डूब तन मन नहाने लगा
चित्र अनुभूतियों के प्रथम पॄष्ठ का, सामने आ गया झिलमिलाने लगा
इक अबीरी छुअन, जैसे बिल्लौर की, प्यालियों में भरी छलछलाने लगी
बांसुरी की धुनों की पकड़ उंगलियां गीत लहरों का कोई सुनाने लगा

थी शिराओं में अँगड़ाई लेती हुई, कसमसाती हुई दामिनी एक दिन
चूमती थी अधर आके मुस्कान की गुनगुनाती हुई रागिनी एक दिन

फिर चमेली की परछाइयों में घुली भोर, निशिगंध को पी महकने लगी
स्वर्ण पत्रों से छनती हुईं रश्मियां, मन के रजताभ पट पर चमकने लगी
एक नटखट हवाओं का झोंका कोई, कान में आके कुछ कुछ सुनाने लगा
सांझ के पात्र में ओस भरती हुई, पूर्णिमा ज्यों सुधा बन टपकने लगी

कल्पना, बन क्षितिज पर संवरती रही खिलखिलाती हुई कामिनी एक दिन
बन के दुल्हन हमारी गली में रही मुस्कुराती हुई चाँदनी एक दिन

करवटें ले रहे आज वयसंधि के मोड़ पर जो उगे भाव अनुराग के
हीरकनियों के पंखों जड़े हैं सपन भावनाओं के रंगीन विश्वास के
एक चाँदी के वरकों सरीखी अगन लेती अँगड़ाई सुधियों की अँगनाई में
और बोने लगी बीज फिर से नये प्रीत की पुष्पबदनी मधुर आस के

अल्पना, द्वार की, डूब कर रंग में थी लजाती हुई शायिनी एक दिन
बन के दुल्हन हमारी गली में रही मुस्कुराती हुई चाँदनी एक दिन

मंज़िल नहीं है

राजपद पर कर दिया आसीन तुमको आज सब ने
भूलना तुमको नहीं है, सिर्फ़ ये मंज़िल नहीं है

है क्षणिक विश्राम का पल, फिर उठो पाथेय बांधो
खोलने तुमको नये आयाम प्राची के परे जा
तोड़ कर सीमा क्षितिज की फिर उगाने नव उजाले
सूर्य से कितनी अपेक्षा राह को रोशन करे वो

जो तुम्हारे हाथ से दो चार उंगली दूर पर है
हो विदित तुमको, वही है ध्येय औ पाना वही है

जानते हो कोष संचित साथ न देता सदा ही
एक भ्रम ही है भुलावा जो सदा देता रहा है
जो मुलाम्मे में छुपा है ध्यान उसकी ओर दो तुम
जीतता है वह, स्वयं को जान जो लेता रहा है

राजपद के राजपथ का पग प्रथम विस्मॄत न करना
नीड़ को पाथेय कर के पग बढ़ाना ही सही है

बिम्ब दर्पण के सुखद लगते मगर आकार धूमिल
फूल कागज़ के न देते गंध रहते हों भले खिल
बीज बो तुमको अषाढ़ी मेघ करने भाद्रपद के
है तभी संभव बनेगी राह खुद ही एक मंज़िल

आज की ऊँचाई से, आकाश को भर लो भुजा में
आस की बहती हवा ये आज तुमसे कह रही है

छलके शब्दों की गागरिया

छलक रही शब्दों की गागर
संध्या भोर और निशि-वासर
दोहे, मुक्तक और सवैये, खिले गीत के छंद
घुलने लगा कंठ में सुरभित पुष्पों का मकरंद

भरने लगा आंजुरि मे अनुभूति का गंगाजल
लगा लिपटने संध्या से आ मॆंहदी का आँचल
ऊसर वाले फूलों में ले खुश्बू अँगड़ाई
मरुथल के पनघट पर बरसा सावन का बादल

करने लगी बयारें, पत्रों से नूतन अनुबंध
दोहे मुक्तक और सवैये, खिले गीत के छंद

लहराई वादी में यादों की चूनर धानी
नदिया लगी उछलने तट पर होकर दीवानी
सुर से बँधी पपीहे के बौराई अमराई
हुए वावले गुलमोहर अब करते मनमानी

वन-उपवन में अमलतास की भटकन है स्वच्छंद
घुलने लगा कंठ में सुरभित पुष्पों का मकरंद

रसिये गाने लगीं मत्त भादों की मल्हारें
अँगनाई से हंस हंस बातें करतीं दीवारें
रंग लाज का नॄत्य करे आरक्त कपोलों पर
स्वयं रूठ कर स्वयं मनायें खुद को मनुहारें

एक एक कर लगे टूटने मन के सब प्रतिबंध
दोहे मुक्तक और सवैये, खिले गीत के छंद

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...