ॠष्यमूक पर बैठे बैठे हमने सारी उमर गँवा दी
किन्तु न आया राह भटक भी, इस पथ पर कोई वनवासी
अपनी परछाईं से भी हम
रहे प्रताड़ित थे हतभागे
आतुर थे इक दिवस समय ये
करवट कोई लेकर जागे
तने शीश पर के वितान के
अँधियारे को पी ले कोई
और दिशा की देहरी चूमें
आकर कभी रश्मियाँ खोई
दस्तक से छिल चुकी हथेली में रेखाओं को तलाशते
अब तो कुशा कमंडल लेकर, नजर हो चुकी है सन्यासी
बारह खानों में घर अपना
बना बैठ रह गये सितारे
था अभिमान बड़ा गुरुओं को
करते सभी समन्वय हारे
जो मध्यम में रहे पिसे वह
दशा न बदली पल भर को भी
उठे हाथ थक गये, थामने
बढ़ा न कोई हो सहयोगी
उलझे समीकरण प्रश्नों को और जटिल करते जाते हैं
कोई हल संभावित होगा, आशा भी न बची जरा सी
नयनों की फुलवारी में बस
पौधे उगे नागफ़नियों के
रिश्ते जितने जुड़े बहारों से
सारे हैं दुश्मनियों के
चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर
आशाओं का लुटा चन्द्रमा, अभिलाषा की सूखी नदिया
अँगनाई में पांव पसारे, बैठी बस घनघोर उदासी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा फागुनी ...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
11 comments:
राकेश जी, अत्यन्त भावपूर्ण अभिव्यक्ति है
बहुत खूब!
हम आज बस यह कह्ते हैं-वाह, बहुत खूब!!!
ॠष्यमूक पर बैठे बैठे हमने सारी उमर गँवा दी
किन्तु न आया राह भटक भी, इस पथ पर कोई वनवासी
मैं अपनी ओर से क्या लिखूँ?
सुन्दर भावपूर्ण रचना है राकेश जी
व्यथा भी कही है ऐसी की सुध दे गया मन में आकर…
लगा जैसे कोई वह बात कही और नहीं भी कही लिखकर…
दृष्टि तो अनोखी है आपकी जो सजलता से दिखाती है रास्ते अपनी…।
चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर
बहुत सुन्दर लिखा है राकेश जी। बहुत-बहुत बधाई। ये पंक्तियाँ बहुत पसन्द आईं।
राकेश बहुत ही सुन्दर रचना है। ये पंक्तियाँ विशेषरूप से पसन्द आईं:
नयनों की फुलवारी में बस
पौधे उगे नागफ़नियों के
रिश्ते जितने जुड़े बहारों से
सारे हैं दुश्मनियों के
चन्दन हुइ न देह, लिपटते
रहे किन्तु आ आकर विषधर
नीलबदन हो गये, मिला जो
जीवन का वह रस पी पीकर
आशाओं का लुटा चन्द्रमा, अभिलाषा की सूखी नदिया
अँगनाई में पांव पसारे, बैठी बस घनघोर उदासी
*** राजीव रंजन प्रसाद्
बहुत सुंदर रचना है राकेश जी...विशेष कर..
दस्तक से छिल चुकी हथेली में रेखाओं को तलाशते
अब तो कुशा कमंडल लेकर, नजर हो चुकी है सन्यासी
बहुत-बहुत बधाई आप बहुत गहरा लिखते है...
सुनीता(शानू)
kathya aur shilp donon hee staron par bahut hee umda rachana hai bhai.
Isht Deo Sankrityaayan
आपको 'हिंदी ब्लॉग-युग के जय शंकर प्रसाद' कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी।
Post a Comment