हो गई जड़ ये कलम अब

लेखनी अब हो गई स्थिर
भाव की बदली न छाती मन-गगन पर आजकल घिर

आँख से बहती नहीं अब कोई अनुभूति पिघल कर
स्वर नहीं उमड़े गले से, होंठ पर आये फ़िसल कर
उंगलियों की थरथराहट को न मिलता कोई सांचा
रह गया संदेश कोशिश का लिखा, हर इक अवांचा

गूँजता केवल ठहाका, झनझनाते मौन का फ़िर

चैत-फ़ागुन,पौष-सावन, कुछ नहीं मन में जगाते
स्वप्न सारे थक गये हैं नैन-पट दस्तक लगाते
अर्थहीना हो गया हर पल विरह का व मिलन का
कुछ नहीं करता उजाला, रात का हो याकि दिन का

झील सोई को जगा पाता न कंकर कोई भी गिर

दोपहर व सांझ सूनी, याद कोई भी न बाकी
ले खड़ी रीते कलश को, आज सुधि की मौन साकी
दीप की इक टिमटिमाती वर्त्तिका बस पूछती है
हैं कहां वे शाख जिन पर बैठ कोयल कूकती है

रिक्तता का चित्र आता नैन के सन्मुख उभर फिर

जो हवा की चहलकदमी को नये नित नाम देती
जो समंदर की लहर हर एक बढ़ कर थाम लेती
जो क्षितिज से रंग ले रँगती दिवस को यामिनी को
जो जड़ा करती सितारे नभ, घटा में दामिनी को

वह कलम जड़ हो गई, आशीष चाहे- आयु हो चिर

आप

आपकी प्रीत में डूब कर मीत हम, भोर से सांझ तक गुनगुनाते रहे
नैन के पाटलों पर लगे चित्र हम रश्मि की तूलिका से सजाते रहे
आपके होंठ बन कर कलम जड़ गये, नाम जिस पल अधर पर कलासाधिके
वे निमिष स्वर्णमय हो गये दीप से, बन के दीपावली जगमगाते रहे

उन गीतों से विलग हुआ मैं

कुछ ऐसा भी हुआ लिखे जो गीत उन्हें न कोई पढ़ता
फिर ऐसे गीतों से मैं भी विलग न होता तो क्या करता

कुछ ऐसे हैं जोकि भूमिकाऒं से आगे बढ़े नहीं हैं
हालातों से घबरा कर बैठे हैं बिल्कुल लड़े नहीं हैं
छंदो के इक चक्रव्यूह को रहे तोड़ने में वे असफ़ल
था सोपान गगन तक जाता, लेकिन बिल्कुल चढ़े नहीं हैं

जो प्रयास से भी थे होकर विमुख रहे शब्दों में छुप कर
मैं ऐसे निष्प्राण भाव के पुंज सँजो कर भी क्या करता ?

वासी फूल नहीं सजते हैं, तुम्हें विदित पूजा की थाली
स्वप्न चाँद के नहीं देखतीं कॄष्ण पक्ष की रातें काली
बिखरे अक्षत फिर माथे का टीका जाकर नहीं चूमते
मुरझाई कलियों को रखता है सहेज कर कब तक माली

जो हर इक अनुग्रह से वंचित और उपेक्षित होकर बैठे
तुम्ही कहो कब तक उनको मैं अपने कंठ लगा कर रखता ?

गति तो चलती नहीं बाँध कर, अपने साथ मील के पत्थर
धारा, जिसको बहना है वह रुकती नहीं तटों से बँधकर
प्राची नहीं जकड़ कर रखती , आये द्वार रश्मि जो पहली
खो देता अस्तित्व हवा का झोंका अपना बहना रुककर

मैं जीवन के स्पंदन के संग जब चल दिया बना हमराही
फिर रचना के अवशेषों को कब तक बाँध साथ में रखता ?

गीतों को मैं नूतन स्वर दूँ

जिन गीतों की जनक रही हैं चन्दन-बदनी अभिलाषायें
आप कहें तो अपने उन गीतों को मैं फिर नूतन स्वर दूँ

अगरु-धूम्र के साथ गगन में मुक्त छंद में नित्य विचरते
मानसरोवर में हंसों की पांखों से मोती से झरते
पनिहारी की पायक की खनकों में घुल कर जल तरंग से
कलियों के गातों को पिघली ओस बने नित चित्रित करते

सिन्दूरी गंधों से महके हुए शब्द की अरुणाई को
आप कहें तो फिर से उनके छंद शिल्प में लाकर भर दूँ

संदर्भों के कोष वही हैं और वही प्रश्नों के हल भी
अभिलाषायें जो थीं कल, हैं आज भी वही, होंगी कल भी
वही पैंजनी की रुनझुन के स्वर को सुनने की अकुलाहट
और वही संध्या के रंग में घुलता नयनों का काजल भी

हाँ ! कुछ बदला है शब्दों में, वह परिपक्व रूप का वर्णन
उसका चित्र कहें तो लाकर आज आपके सन्मुख धर दूँ

अँधियारी सुधियों को दीपित करते रहे बने उजियारे
पग को रहे चूमते होकर रंग अलक्तक के रतनारे
साधें सतरंगी करते से रख रख कर शीशे बिल्लौरी
राग प्रभाती और भैरवी ये बन जाते सांझ सकारे

किन्तु अभी तक जो एकाकी भटके मन के गलियारों में
आप कहें तो पल पुष्पित कर ,मैं उनका पथ सुरभित कर दूँ

बस तुम्हारा नाम गाते

देहरी से भोर की ले द्वार तक अस्ताचलों के
गीत मैं लिखता रहा हूँ बस तुम्हारे, बादलों पे
व्योम के इस कैन्वस को टाँग खूँटी पर क्षितिज की
चित्रमय करता रहा हूँ रंग लेकर आँचलों से

ध्यान का हो केन्द्र मेरे एक वंशीवादिनी तुम
बीतते हैं ज़िन्दगी के पल तुम्हारा नाम गाते

चाँदनी की रश्मियों को लेखनी अपनी बना कर
पत्र पर निशिगंध के लिखता रहा हूँ मै सजाकर
सोम से टपकी सुधा के अक्षरों की वर्णमाला
से चुने वह शब्द , कहते नाम जो बस एक गाकर

हो मेरे अस्तित्व का आधार तुम ही बस सुनयने
एक पल झिझका नहीं हूँ, ये सकल जग को बताते

एक पाखी के परों की है प्रथम जो फ़ड़फ़ड़ाहट
दीप की इक वर्त्तिका की है प्रथम जो जगमगाहट
इन सभी से एक बस आभास मिलता , जो तुम्हारा
चक्र की गति में समय के, बस तुम्हारी एक आहट

जो सुघर मोती पगों की चाप से छिटके हुए हैं
वे डगर पर राग की इक रागिनी अद्भुत जगाते

गान में गंधर्व के है गूंजती शहनाईयों का
देवपुर की वाटिका में पुष्प की अँगड़ाइयों का
स्रोत बन कर प्रेरणा का, रूप शतरूपे रहा है
षोडसी श्रॄंगार करती गेह की अँगनाईयों का

जो न होते पांव से चुम्बित तुम्हारे, कौन पाता
नूपुरों को, नॄत्य करती पेंजनी को झनझनाते

चन्दन लेप लगाया किसने

सावन की पहली बयार का झोंका है या गंध तुम्हारी
मेरे तप्त ह्रदय पर आकर चन्दन लेप लगाया किसने

खुले हुए अम्बर के नीचे जलती हुई धूप आषाढ़ी
धैर्य वॄक्ष पर रह रह गिरती, अकुलाहट की एक कुल्हाड़ी
स्वेद धार को धागा करके, झुलसे तन को बना चदरिया
विरह-ताप की, कलाकार ने रह रह कर इक बूटी काढ़ी

पर जो मिली सांत्वना यह इक प्यार भरी थपकी बन बन कर
मैं रह गया सोचता मुझ पर यह उपहार लुटाया किसने

टूटी शपथों की धधकी थी दग्ध ह्रदय में भीषण ज्वाला
और उपेक्षाओं ने आहुति भर भरकर घी उसमे डाला
विष के बाण मंत्र का ओढ़े हुए आवरण चुभे हुए थे
घेरे था अस्तित्व समूचा, बढ़ता हुआ धुंआसा काला

सुर सरिता सिंचित किरणों से ज्ञान-प्रीत का दीप जला कर
मन पर छाई गहन तमस को आकर आज हटाया किसने

गूँज रहा था इन गलियों में केवल सन्नाटे का ही स्वर
अट्टहास करता फिरता था, पतझड़ का आक्रोश हो निडर
फ़टी विवाई वाली एड़ी जैसी चटकी तॄषित धरा पर
पल पल दंश लगाता रहता था अभाव का काला विषधर

थे मॄतप्राय ,सभी संज्ञा के चेतन के पल व अवचेतन
सुधा पिला कर फिर जीने का नव संकल्प सजाया किसने

आप - एक अंतराल के पश्चात पुन:

आपकी देख परछाईयाँ झील में, चाँदनी रह गयी है ठगी की ठगी
आप बोले तो मिश्री की कोई डली, फ़िसली होठों से ज्यों चाशनी में पगी
मुस्कुराये तो ऐसा लगा है गगन आज बौछार तारों की करने लगा
नैन जैसे खुले, आस के रंग में डूब कर कल्पनायें उमगने लगीं

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आपकी दॄष्टि की रश्मियों से जगे, बाग में फूल अँगड़ाई लेते हुए
सावनी मेघ घिरने लगे व्योम में, आपके कुन्तलों से फ़िसलते हुए
साँस की टहनियाँ थाम कर झूलतीं, गुनगुना मलयजी होती पुरबाइयाँ
नैन की काजरी रेख से बँध गये, सुरमई सांझ के बिम्ब ढलते हुए

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मन अब ये हो गया मरुस्थल

टूट गईं वे चन्दन कलमें, जो चित्रित गीतों को करतीं
फूल न अब खिलते शब्दों के मन मेरा हो गया मरुस्थल

कुंठाओं की अमरबेल ने घेरी भावों की फुलवारी
जली प्यास से सुलग रही है, संबंधों की सूनी क्यारी
सौगंधों के डंक विषैले फिर फिर दंश लगा जाते हैं
चुभती है रह रह सीने में तपी याद की एक कटारी

आशाओं की झीलों पर यूँ जमी हुईं काई की परतें
कितने भी पत्थर फ़ेंको, अब होती नहीं तनिक भी हलचल

त्रिभुज बनी हैं विद्रोहित हो, हाथों की सारी रेखायें
पल पल कुसुमित होती रहतीं, मन में उगती हुई व्यथायें
बरसी हुई निराशा पीकर,हो जाता बोझिल सन्नाटा
गठबंधन हैं किये जेठ से, जो सावन की रही घटायें

दिशाभ्रमित पग आतुर, कोई मिले राह से जो अवगत हो
लेकिन मुझको पता पूछती मिली सिर्फ़ पगडंडी पागल

नयनों का हर मोती, हंसा बन कर पीड़ा ने चुग डाला
पथ का हर इक दीप, तिमिर का बैठा ओढ़े हुए दुशाला
अनुभूति पर गिरी अवनिका, अभिव्यक्ति ने खोई वाणी
निशा-नगर से मिला, आस के हर सपने को देश निकाला

बंजर हुई भावनाओं की, प्राणों से सिंचित अमराई
गिरे पथिक को अब राहों में देता नहीं कोई भी संबल

सुधि की पुस्तक का हर पन्ना, फ़टा और उड़ गया हवा में
कोष लूट ले गये लुटेरे, छुप कर माँगी हुई दुआ में
रही टपकती उम्र पिघल कर, माँग प्रतीक्षा की सूनी ही
और उपेक्षित सन्दर्भों पर वापिस पड़ती नहीं निगाहें

तोड़ चुकी दम, हर वह दस्तक, जिसमें स्वाद दिलासे का था
सिर्फ़ शेष है दर्द पुराना, खड़काता आ आकर साँकल

आप जिसकी अनुमति दें

एक मुट्ठी में लिये हूं गीत, दूजी में गज़ल है
आप जिसकी दें मुझे अनुमति, वही मैं गुनगुनाऊं

प्रीत के पथ से चली पुरवाई की चन्दन कलम से
गंध की ले रोशनाई , छंद में लिखता रहा हूँ
भोर की पहली किरण के स्वर्ण में मणियां पिरोकर
भाव के आभूषणों को शिल्प में जड़ता रहा हूँ
नैन झीलों में हिलोरें ले रहीं हैं जो तरंगें
वे बनी हं आप ही आ गीत की मेरे रवानी
तितलियों के पंख पर जो हैं कली के चुम्बनों ने
लिख रखीं.दोहरा रहा हूँ शब्द से मैं वह कहानी

जो मधुप गाता रहा है वाटिका की वीथियों में
आपका आदेश हो तो रागिनी मैं, वह सुनाऊं

शब्द जो गणगौर के तैरे गुलाबी वीथियों में
मैं उन्हें क्रमबद्ध कर अशआर की जागीर देता .
घूँघटों से छन रही हैं जो निरन्तर ज्योत्सनायें
वे हुईं हैं भावभीनी नज़्म की हरदम प्रणेता
पैंजनी का सुर, मिला संगीत पीतल के कलश का
नाचता है जोड़ कर आवाज़ अपनी कंठ स्वर से
झिलमिलाती ओढ़नी, गोटे जड़ी उड़ती हवा में
ढल गई है शेर में हर एक वह मेरी गज़ल के

ताल के बिन जो अभी तक अनकही ही रह गईं है
आप कह दें तो गज़ल उस से अधर को थरथराऊँ

छैनियों ने पत्थरों पर जिन कथाओं को तराशा
वे कथायें बन गई हैं गीत की संवेदनायें
पॄष्ठ पर इतिहास के जो दीप अब भी प्रज्वलित हैं
दीप्तिमय करते रहे हैं अर्चना आराधनायें
हर अधूरी रागिनी को पूर्ण करते बोल जो भी
वे बने हैं मंत्र पूजा के तपों में साधकों के
आस की ले कूचियां विश्वास की मधुरिम विभा से
रँग रहे श्रुतियाँ अनेकों ला अधर पर पाठकों के

बन ॠचायें छंद की बिखरे पड़े हैं सामने सब
आपका जिस पर इशारा हो उसी को मैं उठाऊँ

जानता संभव कसौटी गीत अस्वीकार कर दे
और गज़लों के वज़न में संतुलन की खामियाँ हों
हाथ असफ़लता लगे जब शिल्प की अन्वेषणा में
और भावों के कथन में अनगिनत नाकामियाँ हों
किन्तु मेरे मीत जो मेरे अधर पर काँपते हैं
वह गज़ल या गीत जो हैं आप ही के तो लिये हैं
जो कमी है या सुघड़ता, आप ही की प्रेरणा है
शब्द जितने पास थे सब आप ही के हो लिये हैं

स्वर मेरे, अक्षर मेरे बस एक संकुल के प्रतीक्षित
जब मिले, मैं पूर्णता की ओढ़ चादर मुस्कुराऊँ

आप जो आदेश दें मैं आपको अब वह सुनाऊँ

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...