थरथराती हुई उंगलियों से

नैन की झील में पड़ रहे बिम्ब में
चित्र आये हैं ऐसे संवरते हुए
थरथराती हुई उंगलियों से कोई
नाम कागज़ पे लिखता संभलते हुए

जो टँगीं हैं पलक की घनी झाड़ियों
पर हैं परछाईयां खो चुकी अर्थ भी
छटपटाती हुईं झूलने के लिये
थाम कर डोर कोई भी संदर्भ की
स्पर्श की आतुरा और बढ़ती हुईं
छू लें बिल्लौर सा झील का कैनवस
ज्ञात शायद न हो, भावना से रँगी
पर्त इस पर चढ़ी है रजत वर्क सी

याद का कोई आकर न कंकर गिरे
रंग रह जायें सारे बिखरते हुए

कांपते होंठ पर बात अटकी हुई
न कही जा रही, न ही बिसरे जरा
चित्र रेखाओं में इक उभरता हुआ
धुन्धमें डूब कर है कुहासों घिरा
एक पहचान के तार को खोजता
जोकि ईजिल की खूँटी से बाँधे उसे
ऒट से चिलमनों की रहा झाँकता
बन के जिज्ञासु, थोड़ा सा सहमा डरा

कोई लहरों पे सिन्दूर रंगता रहा
ढल रही शाम को चित्र करते हुए

है किसी एक आभास की सी छुअन
होती महसूस लेकिन दिखाई न दे
धमनियों में खनकती हुईं सरगमें
झनझनाती है लेकिन सुनाई न दे
मन के तालाब से धुल गये वस्त्र से,
भाव आतुर, टँगें शब्द की अलगनी
नैन लिखते हुए नैन के पत्र पर
बात वह जो किसी को सुनाई न दे

स्वप्न आकर खड़े हो रहे सामने
एक के बाद इक इक उभरते हुए

लिखता हूँ अध्याय चाह के

पुरबा ने बाँसुरिया बन कर जब छेड़ा है नाम तुम्हारा
अभिलाषा की पुस्तक में , मैं लिखता हूँ अध्याय चाह के

स्वस्ति-चिन्ह जब रँग देती है पीपल के पत्तों पर रोली
देहरी पर, अँगनाई में जब रच जाती मंगल राँगोली
आहुतियों के उपकरणों को जब संकल्प थमाता कर में
और ॠचायें भर भर लातीं स्वाहा के मंत्रों की झोली

उस पल मेरे वाम-पार्श्व का एकाकीपन बुनता सपने
एक तुम्हारी छवियों वाली अमलतास की विटप छाँह के

मलय वनों से निर्वासित गंधों ने जब घेरा चौबारा
जब ऊषा ने विश्वनाथ के द्वारे घूँघट आन उतारा
जब कपूर ने अगरु-धुम्र के साथ किया नूतन अनुबन्धन
और अवध की गलियों ने जब संध्या को कुछ और निखारा

उस पल भित्तिचित्र में ढलता बिम्ब तुम्हारा कमल्लोचने
संजीवित कर देता है सब स्वप्न संवरते बरस मास के

प्राची की अरुणाई में जब गूँजी है प्रभात की बोली
याकि प्रतीची में उतरी हो आकर के रजनी की डोली
चन्द्र-सुधा से डूबे नभ में, महके रजत पुष्प की क्यारी
दोपहरी के स्वर्ण-पात्र में जब मौसम ने खुनकें घोलीं

उस पल मेरे भुजपाशों में उतरा हुआ ह्रदय का स्पंदन
आतुर हो जाता पाने को स्पर्श यष्टि की सुदॄढ़ बाँह के

श्लोकों से स्तुत होते हैं जब मंदिर में कॄष्ण मुरारी
बरसाने का आमंत्रण जब दोहराती वॄषभानु-दुलारी
मीरा की उंगलियाँ जगातीं जब इकतारे का कोमल स्वर
और प्रीत की शिंजिनियाँ जब नस नस में जातीं संचारी

उस पल सुधि के मानचित्र पर रूप तुम्हार दिशाबोध बन
करता है गुलाब में पारिणत, सब सिकतकण बिछी राह के.

तुम्हें गीत बन जाना होगा

गा तो दूँ मैं गीत मान कर बात तुम्हारी ओ सहराही
लेकिन तुमको मेरे स्वर से अपना कंठ मिलाना होगा

यह पथ का संबन्ध साथ ले हमको एक डगर है आया
हमने साथ साथ ही पथ में बढ़ने को पाथेय सजाया
यद्यपि नीड़ तुम्हारे मेरे अलग अलग हैं ओ यायावर
मेरे जो हैं तुमने भी तो उन संकल्पों को दोहराया

बन कर इक बादल का टुकड़ा, बन तो जाऊं छांह पंथ में
लेकिन तुमको अपनी गति से कुछ पल को थम जाना होगा

जागी हुई भोर के पंछी हैं हम तुम फैला वितान है
सजा रखा पाथेय साथ में, संचित इक लम्बी उड़ान है
मॄगतॄष्णा के गलियारों से परे बने हैं मानचित्र सब
तीर भले संधान अलग हों,करने वाली इक कमान है

लक्ष्य-भेद मैं कर तो दूंगा, एक तुम्हारे आवाहन से
लेकिन प्रत्यंचा पर तुमको आ खुद ही चढ जाना होगा

जिन प्रश्नों ने तुमको घेरा, मैं भी उनमें कभी हुआ गुम
जिन शाखों पर कली प्रफ़ुल्लित,उन पर ही हैं सूखे विद्रुम
क्यों पुरबा का झोंका कोई, अकस्मात झंझा बन जाता
जितना कोई तुम्हें न जाने,उतना जान सको खुद को तुम

मैं उत्तर बन आ तो जाऊं उठे हुए हर एक प्रश्न का
लेकिन उससे पहले तुमको प्रश्न स्वयं बन जाना होगा

मैं चुनता हूँ वन,उपवन,घर-आँगन में बिखरे छंदों को
संजीवित करता हूँ पथ पर चलने की सब सौगंधों को
भाषा की फुलवारी में जो मात्राओं के साथ किये हैं
अक्षर ने, मैं दोहराता हूँ उन वैयक्तिक अनुबन्धों को

बन कर गीत संवर जाऊंगा मैं मन कलियों के पाटल पर
लेकिन तुमको अर्थों वाले शब्दों में ढल जाना होगा

नाम तुम्हारा आ जाता है

संझवाती के दीपक को जब सत्ता सौंपी है सूरज ने
जाने क्यों मेरे अधरों पर नाम तुम्हारा आ जाता है
सुर का सहपाठी होकर तो रहा नहीं मेरा पागल मन
फिर भी उस क्षण जाने कैसे गीत तुम्हारे गा जाता है

गोधूलि से रँगे क्षितिज पर, उभरे हैं रंगों के खाके
सिन्दूरी सी पॄष्ठभूमि पर, चित्र सुरमई बाल निशा के
और तुम्हारी गंधों वाली छवि से अँजे हुए नयनों में
लगते हैं अँगड़ाई लेने. कुछ यायावर शरद विभा के

कुछ पल का ही साथ इस कदर संजीवित कर गया समय को
लगता है तुमसे मेरा अनगिनती जन्मों का नाता है

सुरभि यामिनी गंधा वाली वातायन पर आ हँसती है
अभिलाषा के पुष्प-गुच्छ की रंगत और नई होती है
जलतरंग की मादक धुन में ढल जाते हैं पाखी के स्वर
गुंजित होती चाप पदों की एक अकेली पगडंडी पर

निंदिया का रथ मेरे घर से ज्ञात मुझे है बहुत दूर है
लेकिन स्वप्न तुम्हारा रह रह, पाहुन बन बन कर आता है

पनघट के पथ से आवाज़ें, देती है पायल मतवाली
कंदीलें उड़ने लगती हैं, महकी हुई उमंगों वाली
नैन दीर्घाओं में टँकते, चित्र कई जाने पहचाने
ढली सांझ में घुलते जाकर यादों के बीहड़ वीराने

संध्या-वंदन को, आँजुर में भरा हुआ जल अभिमंत्रित हो
इससे पहले दर्पन बन कर चित्र तुम्हारा दिखलाता है

नीड़ पथिक के पग को अपनी ओर बुलाने लगता है जब
अलगोजे के स्वर पर कोई भोपा गाने लगता है जब
शयन-आरती को मंदिर में तत्पर होता कोई पुजारी
करने लगती नॄत्य अलावों में जब इक चंचल चिंगारी

तब खिड़की पर आकर रुकता हुआ हवा का हर इक झोंका
मुझको लगता है संदेशे सिर्फ़ तुम्हारे ही लाता है

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...