उगी भोर से ढली सांझ तक आवारा मन भटका करता
सरगम की तलाश में कोई गीत नहीं पर गा पाता है
खुले हुए दालानों में आ कुर्सी पर थी हवा बैठती
अँगनाई में एक दरेंता दलता रहता था दालों को
छत पर बनते रहे कुरैरी, पापड़, टूटा करती बड़ियाँ
अलसाई दोपहरी आकर सुलझाती उलझे बालों को
लगता है अजनबी हो गया वह इक धुंधला चित्र ह्रदय का
किन्तु सुलगती शामों में वह गहरा गहरा हो जाता है
तिरते दॄश्य दीर्घाओं में नयनों की कुआ पूजन के
थिरक रहे कदमों का लेना फ़ेरे गिर्द चाक के अविरल
छत से लटके पलड़े पर से गिरी चाशनी बने बताशे
करघे का गायन रह रह कर करता हुआ रुई को कोमल
उन गलियों को जाने वाली राहें बीन ले गया अंधड़
आस उधर फिर भी जाने की मन ये छोड़ नहीं पाता है
गलियों के नुक्कड़ पर गाते ठन ठन पीतल,घन घन लोहा
हलवाई की भट्टी पर से आती खुशबू की बौछारें
रह रह पास बुलाती गूंजें मंदिर में होती आरति की
बन आशीषें बरसा करतीं दादी नानी की मनुहारें
इतिहासों में बंद हो गए पढी हुई पुस्तक के पन्ने
लेकिन झोंका एक हवा का,इन्हें सांझ छितरा जाता है
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
शिल्पकारों का सपना संजीवित हुआ एक ही मूर्त्ति में ज्यों संवरने लगा चित्रकारों का हर रंग छू कूचियां, एक ही चित्र में ज्यों निखरने लगा फागुनी ...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
5 comments:
बहुत सुन्दर गीत...कल आपसे फोन पर बात करुँगा...बहुत दिन हो गये. :)
किन्तु सुलगती शामों में वह गहरा गहरा हो जाता है
......
लेकिन झोंका एक हवा का,इन्हें सांझ छितरा जाता है
aabhaar!
वाह। वाह।
कुछ और नहीं बस।
उन गलियों को जाने वाली राहें बीन ले गया अंधड़
आस उधर फिर भी जाने की मन ये छोड़ नहीं पाता है
यही कसक तो हमारे जीने का आधार बनती है। बहुत ही सशक्त रचना, बधाई।
लगता है अजनबी हो गया वह इक धुंधला चित्र ह्रदय का
किन्तु सुलगती शामों में वह गहरा गहरा हो जाता है
ati-sundar!!
Post a Comment