गीत नया इक बन जाते हैं

ढली शाम के लम्हों में जब बीते हुए दिवस की चादर
सुधियों की अलगनियों पर आ सहसा ही लहरा जाती है
धुंधले हुए निमिष उस पल में फिर संजीवित हो जाते हैं
और अचानक शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

चले जा रहे दिन के साए में खो जाती अभिलाषाएं
लगतीं हैं दोहराने मन की चौपालों पर वे गाथाएँ
जिनमें रस्ता भटके वन में पता पूछते राजकुंवर को
राह निदेशन के संग संग में बिन मांगे वर मिल जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

जुड़ती नहीं नयन की कोरों से आकर सपनों की डोरी
एक बार फिर रह जाती है आशा की चूनरिया कोरी
हाथों की रेखाओं में जब दिशा ढूँढते संघर्षी को
उलझी हुई राह के बनते हुये व्यूह ही दिख पाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

रोज लुटाती निधि को फिर भी क्षीण न होती पीर पोटली
लगती भरी सांत्वनाओं से वाणी की हर बात खोखली
सरगम के आरोहों पर से फिसले सारंगी के सुर में
इकतारे के एकाकी स्वर जब आ शामिल हो जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

आदिकाल से बना हुआ इक दोपहरी का पुल जब टूटे
निशा संधि  की रेखाओं तक आये नहीं कभी भी, रूठे
जब प्राची के रक्तकपोलों पर से छिटकी हुई अरुणिमा
के आभास प्रतीची की दुल्हन का आँचल बन जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

अंगड़ाई जब उठी भोर की रह रह कर करवट ही बदले
और सेज पर फूल स्वयं ही अपनी पांखुर रह रह मसले
लुटी हुई रजनी के पथ में नयनों से सपनों की गठरी
को ला करुणामयी सितारे आ सिरहाने रख जाते हैं
तब सहसा ही शब्द मचल कर गीत नया इक बन जाते हैं

3 comments:

Shardula said...

Oh! Kitna sunder!

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्द मचलना,
गीत का बनना,
मन का मन से,
बातें करना।

रंजना said...

वाह अद्वितीय....

प्रवाहमयी गीत..मन बहा लेने वाली है...

बहुत बहुत आभार..

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