झालरी कोई हवा की लग रहा कुछ कह रही है

कल्पना के चित्र पर ज्यों पड़ गई इंचों बरफ सी
रह गईं आतुर निगाहें एक अनचीन्हे दरस की
फिर किरण की डोर पकडे बादलों के झुण्ड उमड़े
कसमसाने लग गईं बाहें कसक लेकर परस की
 
शून्य में घुलते क्षितिज की रेख पर से आ फिसलती
झालरी कोई हवा की लग रहा कुछ कह रही है
 
आ रही लगता कही से कोई स्वर लहरी उमड़ कर
किन्तु सुनने की सभी ही कोशिशें असमर्थ लगतीं
दृष्टि की धुँधलाहटों से जागती झुंझलाहटों मे
कोई भी तस्वीर खाकों से परे अव्यक्त लगती
 
उम्र की पगली भिखारिन, साँस का थामे कटोरा
धड़कनों के द्वार पर बस झिड़कियाँ ही सह रही है
 
खींचती है कोई प्रतिध्वनि उद्गमों के छोर पर से
व्योम के वातायनों में कोई रखता नाम लिख कर
मौसमों की टोलियों को पंथ का निर्देश देता
कोई हँसता है हथेली में नई फिर राह भर कर
 
लड़खड़ाते पांव लेकर मानचित्रों में भटकती
प्राप्ति की हर साध ढलती सांझ के सँग ढह रही है
 
यूँ लगे,हैं फ़ड़फ़ड़ाते पृष्ठ कुछ खुलकर विगत के
बह गये इतिहास बन कर शब्द पर सारे लिखे ही
ढेरियां हैं मंडियों में सब पुरानी याद वाली
और हर सम्बन्ध का बर्तन रहा है बिन बिके ही
 
उंगलियों पर गिनतियों के अंक की सीमाओं में बँध
याद की दुल्हन दिवस की पालकी में रह रही है
सुनो सुनयने ! शब्द नहीं अब लिखते गीत तुम्हारा कोई
इसीलिये रख दी है मैने आज ताक पर कलम उठा कर

मिलते जितने शब्द आजकल मुझे राह में चलते चलते
सब के सब क्षतिग्रस्त और हैं पहने हुये पीर के गहने
कातरता के उमड़े बादल रहते सदा नयन के नभ पर
तार तार हो चुकी भावनाओं के केवल चिथड़े पहने

भाव सभी लुट चुके मार्ग में इस जंगल में चलते चलते
शायद यही नियति है रहते बार बार खुद को समझाकर

टूटी हुई मात्राओं की बैसाखी पर बोझ टिका कर
चलना दूभर, चार प्रहर अब खड़े नहीं होने पाते हैं
ठोकर खा गिर पड़े स्वरों का उठना संभव हुआ नहीं है
सभी अनसुने रहे गीत वे मौन सुरों में जो गाते हैं

मरुथल से उठ रहे चक्रवातों की गति में उलझा सा मन
बार बार लौटा करता है परिधियों पर चक्कर खा कर

बदले हुये समय ने बदला शब्दों के सारे अर्थों को
उपमायें सब व्यर्थ हो गईं अलंकार बिखरे नदिया तट
काजल,कुमकुम और अलक्तक चूड़ी,कँगना,तगड़ी,पायल
शेष नहीं है शब्दकोश में ना तो पनघट ना वंशीवट

बिसराये सब पेड़ नीम के, पीपल के , वे इमली वाले
जिनकी छाँव सुला देती थी एक दुपहरी को थपका कर

बेसुर इक हो चुकी बाँसुरी के छिद्रों से बही हवा का
परिचय कितना हो पाता है सारंगी के भटके सुर से
दीवारें खिंच गईं गली के मोड़ों पर जो अनचाहे ही
उनसे टकराया करते हैं अकुलाहट में वे भर भर के

गिर जाते हर बार फ़िसल कर तारों की करवट छूते ही
कितनी बार कोशिशें की हैं बोल सकें कुछ तो अकुलाकर

ये कलम गीत में आप ही ढल सके

गीत लिखते हुये ये कलम थक गई
एक भी तुम मगर गुनगुनाये नहीं
गीत के शब्द में खुद कलम ढल सके
इस तरह से कभी मुस्कुराये नहीं

छन्द के बन्द में कुन्तलों की लटें
बाँधती तो रही ये मचलती हुई
रागिनी की लहर पे रिराती रही
रूप की ज्योत्सनायें छिटकती हुई
राग की सीढियों पर सजाये हुये
थिरकनें बन अधर की तरंगें बही
कर अलंकार जड़ती रहीं शब्द में
बोलियाँ कंठ्स्वर बन उभरती हुईं

नृत्य करने लगे आप ही यह कलम
स्वर के घुँघरू कभी झनझनाये नहीं

रात को नित सजा कर नयन कोर पर
रूप की धूप से दिन उगाते हुये
झुकती उठती हुई दृष्टि की पालकी
से उमंगों की क्यारी सजाते हुये
अल्पना में हिनाई हथेली सजा
कंगनों की खनक से सजा झालरी
गात से उड़ रही सन्दली गंध से
वाटिकायें नई नित बनाते हुये

नित्य बुनती रही कुछ कशीदे नये
तुमने लेकिन इधर पग बढ़ाये नहीं

चाल को ढाल चौपाईयां कर दिया
रख पिरो दीं सवैयों में अंगड़ाईयां
मुक्तकों में बुने यष्टि के मोड़ फिर
कर अलक्तक,कवित्तों की शहनाअईयाँ
करके अतुकांत असमंजसों को रखा
नज़्म में रँग दिये कामना के सिरे
और गज़लें बिछाते रहे पंथ में
चूमने के लिये चन्द परछाईयाँ

कोई मुखड़ा नये गीत का बन सके
शब्द तुमने कभी वो सजाये नहीं
ये कलम गीत में आप ही ढल सके
ऐसे संकेत इस ओर आये नहीं

शब्द बोले बिना हों जिसे कह गये

पुस्तकों के पलटते हुये पृष्ठ हम
प्यार के गीत को ढूँढ़ते रह गये
भावना के बुने अक्षरों में ढले
शब्द बोले बिना हों जिसे कह गये
 
जानते खोज होगी निरर्थक यहाँ
कोई अनुभूतियाँ ढाल पाता नहीं
चाहतों में उलझ कर सतह पर रहा
डूब गहराईयाँ कोई पाता नहीं
तालियों कीअपेक्षा में बन्दी हुई
भावना होंठ की कोर छूती नहीं
सिर्फ़ नक्कारखाना बनीं महफ़िलें
मौन पीते हुये बैठ तूती रही
 
पीढियों से लगाई हुई आस के
जितने सम्बन्ध थे, वे सभी ढह गये
 
छन्द से नित्य बढ़ती रहीं दूरियाँ
शब्द की,भाव की और फ़िर अर्थ की
सरगमों की कतारें भटकती रही
पर दिशा एक भी तो नहीं पा सकीं
आस पंचम पे नजरें टिकाये रही
सीढियाँ छू नहीं पाई आरोह की
कोर पर से फ़िसलती रही पृष्ठ की
दृष्टि पल के लिये हाशिये न टँकी
 
शब्द अध्याय की बंदिशों में बँधे
एक के बाद इक टूट कर बह गये
 
जो रहे सामने वे उच्छृंखल रहे
कोई अनुशासनों के गले ना लगा
कोई परिचय की गलियों में आया नहीं
नाम चेहरे पे चिपका हुआ रह गया
शब्द के झुंड थे, स्वर बहा ना सके
ठोकरें खाते खाते गिरे भूमि पर
और दुहराई फ़िर से कहानी यही
दूसरे पृष्ठ ने खुद ही खुद झूम कर
 
जोकि अनुभूति की मौन पीड़ाओं को
बन्द अव्यक्तता में करे रह गये
 
चाँद खुश्बू नदी पेड़ सारंगियाँ
तारकी -नभ तले जुगनुओं की चमक
अरुणिमा भोर की लालिमा सांझ की
अल्पना में ढला आ क्षितिज पर धनक
वादियाँ,नाव,कोयल,मयूरी हवा
गंध पीकर विचरती हुईं बदलियाँ
प्यार के गीत में ढल ना पाये तनिक
फूल,कलियाँ,मधुप,चाँद और तितलियाँ
 
अर्थ सारे गँवा शब्द आ सामने
एक परछाईं का चित्र बन रह गए

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राकेश खंडेलवाललिखी गज़ल गीतों ने जब छन्दों की भाषामें
नये पृष्ठ जुड़ गये कई मन की अभिलाषा में

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...