ये कलम गीत में आप ही ढल सके

गीत लिखते हुये ये कलम थक गई
एक भी तुम मगर गुनगुनाये नहीं
गीत के शब्द में खुद कलम ढल सके
इस तरह से कभी मुस्कुराये नहीं

छन्द के बन्द में कुन्तलों की लटें
बाँधती तो रही ये मचलती हुई
रागिनी की लहर पे रिराती रही
रूप की ज्योत्सनायें छिटकती हुई
राग की सीढियों पर सजाये हुये
थिरकनें बन अधर की तरंगें बही
कर अलंकार जड़ती रहीं शब्द में
बोलियाँ कंठ्स्वर बन उभरती हुईं

नृत्य करने लगे आप ही यह कलम
स्वर के घुँघरू कभी झनझनाये नहीं

रात को नित सजा कर नयन कोर पर
रूप की धूप से दिन उगाते हुये
झुकती उठती हुई दृष्टि की पालकी
से उमंगों की क्यारी सजाते हुये
अल्पना में हिनाई हथेली सजा
कंगनों की खनक से सजा झालरी
गात से उड़ रही सन्दली गंध से
वाटिकायें नई नित बनाते हुये

नित्य बुनती रही कुछ कशीदे नये
तुमने लेकिन इधर पग बढ़ाये नहीं

चाल को ढाल चौपाईयां कर दिया
रख पिरो दीं सवैयों में अंगड़ाईयां
मुक्तकों में बुने यष्टि के मोड़ फिर
कर अलक्तक,कवित्तों की शहनाअईयाँ
करके अतुकांत असमंजसों को रखा
नज़्म में रँग दिये कामना के सिरे
और गज़लें बिछाते रहे पंथ में
चूमने के लिये चन्द परछाईयाँ

कोई मुखड़ा नये गीत का बन सके
शब्द तुमने कभी वो सजाये नहीं
ये कलम गीत में आप ही ढल सके
ऐसे संकेत इस ओर आये नहीं

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

श्रृंग हृदय का बह बह आता..

Shardula said...

Many happy returns of the day!
Sadar shar

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