उन्हें आज ही कहना अच्छा

ठहरे हुआ नीर जब दर्पण बनता, तो धुंधला ही बनता
गतियाँ भले रहें मंथर ही, पर उसका है बहना अच्छा
 
भिन्न दिखाते आकृतियों के आकारों को सुधि के टुकड़े
प्रतिपल बदले अनुपातों के रह रह रहे बदलते क्रम में
अपने ही बिम्बों से डोरी बँधी हुई परिचय की टूटे
खींचे हुए स्वयं के अपने ही मिथ्या व्यूहों के भ्रम में
 
कुछ सन्दर्भ बदल देये हैं स्थापित हर इक परिभाषा को
इसीलिये जो शब्द पास हैं, उन्हें आज ही कहना अच्छा
 
हुई दृष्टि संकुचित दायरों की सीमाओं में जब बन्दी
तब मरीचिकाओं के संभ्रम आकर छा जाते वितान पर
किन्तु उतरती हुई कलई की खुलती हैं जब झीनी परतें
प्रश्नचिह्न लगने लगते हैं,सम्बन्धों की हर उड़ान पर
 
हुआ प्रशंसा से अनुमोदित गर्व चढ़ा जिन कंगूरों पर
उन आधारहीन कंगूरों का सचमुच है ढहना अच्छा
 
प्रसवित अनुमानों से होते,हुए संचयित निष्कर्षों में
खो देती हैं पंथ स्वयं का सत्य बोध की सीधी रेखा
नयनों के दरवाजे पर तब दस्तक देते थके रोशनी
और दृश्य हर एक स्वयं को रह जाता करके अनदेखा
 
क्षणिक सांत्वना के स्पर्शों से जो अनुभूति बने दुखदायी
मन को अपने उसका होकर एकाकी ही सहना अच्छा

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही सच कहा है..

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