खुलते तो हैं पृष्ठ हवा को छूकर इस मन की पुस्तक के
सुधियों वाली जो संध्या की गलियों में टहला करती है
पी जाती है पर आंखों में तिरती हुई धुंध शब्दों को
और रिक्तता परछाई बन कर आंगन में आ तिरती है
हो जाती है राह तिरोहित, अनायास ही चलते चलते
एक वृत्त में बन्दी बन कर लगता है पग रह जाते हैं
अधरों पर रह रह कर जैसे कोई बात लरज जाती है
लेकिन समझ नहीं आ पाता उमड़े स्वर क्या कह जाते हैं
बिखराने लगता है चढ़ता हुआ अंधेरा स्याही जैसे
सपनों की दहलीजों पर बन ओस फ़िसलती है गिरती है
और मौन की प्रतिध्वनियां बस देखा करती प्रश्न चिह्न बन
जैसे ही तारों से कोई तान बांसुरी की मिलती है
भटकन लौट लौट कर आती है टकराते हुये क्षितिज सेे
आकारों के आभासों से जुड़ता नहीं नाम कोई भी
दीपक रोज जला कर रखता है दिन ला अपने आले में
मुट्ठी में भर रख लेती है उसकी रश्मि सांझ सोई सी
हँसिये का आकार चाँद ले लेता हाथ रात का छूकर
सपनों के पौधे उग पाने से पहले ही कट जाते हैं
बिखरे हुये विजन की गूँगी आवाज़ों को खोजा करते
अवगुंठित हो इक दूजे में निमिष प्रहर सब घुल जाते हैं