चाहिये था क्या हमें, ये सोचते ही रह गये

कल्पना के पृष्ठ शब्द खोजते ही रह गये
चाहिये था क्या हमें, ये सोचते ही रह गये
 
प्रश्न तो हजार रोज भोर सांझ उठ रहे
किसलिये हवाओं की गली में स्वप्न लुट रहे
रख रही उमीद जिस सिरे से डोर बान्ध कर
जा रहा है किसलिये वही सुदूर चाँद पर
बो रहीं दिलासे नित्य सैकड़ों ही क्यारियाँ
दूर दृष्टि से रही हैं रोशनी की बारियाँ
ज्ञात था हमें कि ये सदा उधेड़ बुन रहे
किसलिये उन्हें ही बार बार सभी चुन रहे
 
ये व्यथा नहीं अकेले एक गांव देश की
बात हर गली,शहर की है हर इक प्रदेश की
दृष्टि के वितान चित्र खोजते ही रह गये
चाइये था क्या हमें ये सोचते ही रह गये
 
हुआ प्रतीत चाह कोई मन में गुनगुना रही
अपेक्षितों के पंथ में खड़ी हो गीत गा रही
मगर जुड़ा नहीं कभी भी परिचयों का सिलसिला
रहे गणित ले जोड़ते किसे मिला है क्या मिला
ना भाव हम समर्पणों के आंजुरी में भर सके
सुलह कभी परिस्थिति से एक पल न कर सके
जवाब पास में रहे सवाल ढूढ़ते रहे
कभी हमारे दर्प के किले जरा नहीं ढहे
 
धूप को मरुस्थलों में दी चुनौती दोपहर
कँपकँपाये जब उगा था भोर का प्रथम प्रहर
थे हमारे तर्क जोकि टोकते ही रह गये
चाहिये था क्या हमें ये सोचते ही रह गये 

आज खुल कर के मुझे गीत कोई गाने दो

तुमने आंसू ही सदा सौंपे हैं इन आँखों को 
आज दो पल को भले, होंठ को ,मुस्काने  दो 
 
तुमसे जितनी भी अपेक्षाएं थीं अधूरी रहीं 
पास रहकर भी सदा बढ़ती हुई दूरी रही 
एक धारा ने हमें बाँध रखा है केवल
वरना तट जैसी सदा मिलने की मज़बूरी रही 
 
तुमने आशाएं बुझाईं हैं भोर-दीपक सी 
आज संध्या के दिए की तरह जल जाने दो 
 
भावनाओं की पकड  उंगली चला जब उठ कर
शब्द हर बार रहा कंठ में अपने घुट कर 
अनकहे भाव छटपटाते हैं बिना कुछ बोले 
जैसे आया हो कोई दोस्त से अपने लुट कर 
 
मेरे स्वर पर हैं रखे तुमने लगा कर ताले 
आज खुल कर के मुझे गीत कोई गाने दो 
 
पंथ में घिरते रहे मेरे, अँधेरे केवल 
मेरापाथेय भी करता है रहा मुझ से छल
 वक्त द्रुत हो गया परछाइयाँ  छू कर मेरी 
पोर उंगली के नहीं छू भी सका कोई पल 
 
तुमने बांधे हुए रक्खा है नीड़ में अपने 
आज तो मुक्त करो, मुझको कहीं जाने दो 

राज्य की नीतियों के कथन हो गये

जितने आशीष के शब्द हमको मिले
राज्य की नीतियों के कथन हो गये

 ज़िन्दगी की पतंगें हवा मेंउड़ीं
 वक्त मांझा लिए काटता ही गया
 दिन का दर्जी लिये हाथ में कैंचियाँ“
रात के स्वप्न सब छाँटता ही गया  
बह गईं जो हवायें कभी मोड़ से
लौट कर फिर इधर को चली ही नहीं
बुझ गये भोर में दीप की बातियाँ
सांझ कहती रही पर जली ही नहीं
                       
पौष की रातके पल सजाये हुये                                                            
जेठ की धूप जैसी तपन हो गय
 
हर उगी भोर बुनती रही आस को
दोपहर थाल भर धूप ले आयेगी
छाई ठिठुरन हवाओं भरे शीत की
चार पल के लिये थोड़ा छँट  जायेगी
पर जो सूरज के रथ का रहा सारथी
चाल अपनी निमिष पर बदलता रहा
और गठबन्धनों की दिवारें उठा
सिर्फ़ आश्वासनों से ही छलता रहा
 
 
और हम आहुति ले चुके यज्ञ की
राख में दब के  सोई अगन हो गये
 
पंथ ने जो निमंत्रण पठाये हमें
थे अपेक्षाओं की चाशनी में पगे
नीड़ के थे दिवास्वप्न बोये हुये
उनके आधार को कोई गमले न थे
पांव की थी नियति एक गति से बँधी
बिन रुके अनवरत जोकि चलती रही
उम्र अभिमंतर पासों पे डाले हुये
खेलते खेलते हमको छलती रही
 
पास के शब्द स्वर में नहीं ढल सके
थरथराते अधर की कँपन हो गये

चाह मेरी है उस डलिया की

तुम जिस डलिया में उपवन से लाती हो फूलों को चुनकर
चाह मेरी है उस डलिया की मैं बन जाऊँ एक किनारी
 
त्रिवली का मधुपरस सहज ही लिखे मेरी किस्मत की रेखा
उंगलियों का परस सुधा बन करे प्राण संचार शिरा में
क्रम से फूलों के रखने में बार बार सौजन्य तुम्हारा
सुरभि घोलता रहे निरन्तर मेरी इस अनयनी गिरा में
 
मैं शतगुणी पुलक से भर लूँ, छू ले साड़ी मुझे तुम्हारी
चाह मेरी है उस डलिया की मैं बन जाऊँ एक किनारी
 
जगी भोर में सद्यस्नात तुम चलो किये श्रंगार समूचे
और हाथ में मुझे उठाओ, स्वप्न निशा के ले नयनों में
फूलों पर पड़ गई ओस से वे जब हो लेंगे प्रतिबिम्बित
मैं पा लूँगा कुछ् आभायें मीत उस घड़ी सब अयनों में
 
लालायित हो रहें परस को अलकापुरियों की फुलवारी
चाह मेरी है उस डलिया की मैं बन जाऊँ एक किनारी
 
जब गुलाब को थामो उस पल सारे कांटे होकर कोमल
चाहा करते पा जायें वे जीवन नया फूल बनने को
पत्ती पत्ती की आतुरता, छू पाये मेंहदी का बूटा
और तपस्यायें कलियों की केशों में जाकर सजने को
 
ये सारी अतृप्त कामनायें आ नस नस में संचारी
चाह मेरी है उस डलिया की मैं बन जाऊँ एक किनारी

ज़िन्दगी जिन उंगलियों को थाम कर

ज़िन्दगी जिन उंगलियों को थाम कर के मुस्कुराई
स्पर्श जिनका बो गया सपने हजारों ला नयन  में
आस्था के दीप में लौ को जगाया तीलियाँ बन
साथ रह देती दिशायें चेतना में औ शयन में
आज ढलती सांझ ने मुड़ कर मुझे देखा तनिक तो
दृष्टि   के वातायनों में याद बन वे आ गईं हैं
 
अहम अपना खोलने देता नहीं पन्ने विगत के
दंभ की शहनाईयों में फ़ूँक भरता है निशा दिन
कटघरे में आप ही बन्दी बनाकर के स्वयं को
सोचता उसके इशारों पर चले हैं प्रहर और छिन
एक ठोकर पर दिवस की सीढियों पर से फ़िसल कर
ताश के महलों सरीखे स्वप्न दिन के ढा गई है
 
पांव तो आधार बिन थे दृष्टि   रख दी थी गगन पर
है धरा किस ओर देखा ही नहीं झुक कर जरा भी
नींव सुदृढ़ कर सकें विश्वास की सारी शिलायें
खंडहर, सन्देह की परछाई से घिर कर हुईं थी
था नहीं कोई सिरे उत्थान के जो थाम लेता
ज़िन्दगी केवल त्रिशंकु की दशायें पा गई है
 
पंथ पर तो मोड़ सारे रह गये होकर तिलिस्मी
थे सभी भ्रामक चयन जो पांव ने पथ के किये थे
है जहां से लौट कर पीछे चले जाना असंभव
मान कर वृत्तांत जिनको चुन लिया वे हाशिये थे
कर रही थी तर्क लेकर बोझ इक अपराध का जो
भावना करते समर्पण सामने फिर आ गई  है
 
अब उतरती रात लाई थाल में दीपक सजा कर
दृष्टि के कालीन पथ में पाहुनों के, बिछ गये हैं
मानने को है नहीं तैय्यर मन पागल हठीला
वे सुनहरे पल हजारों मील पीछे रह गये हैं
भावना की उधड़नों में थेगली रह रह लगाती
आस की कोयल नया इक गीत आकर गा गई है

आज तुम्हारी विरुदावलियाँ मैं गाता

आज तुम्हारे लिये शान में मैं पढ़ता हूँ चार कशीदे
कल जब मेरी बारी आये, मेरी पीठ थपथपाना तुम
 
आज लिखी जो कविता तुमने, कितनी ऊँचाई छू ली है
जितने शब्द लिखे हैं उनमें नही एक भी मामूली है
वाह वाह ! क्या लिखा, लग रहा जैसे रख दी कलम तोड़ कर
नीरज दिनकर बच्चन सबको, आये पीछे कहीम छोड़ कर
 
आज तुम्हारे लिक्खे हुये को मैं पंचम सुर में गाता हूँ
कल मैं जो कुछ लिखूँ उसे सरगम में पिरो गुनगुनाना तुम
 
समिति प्रशंसा की अपनी यह, हमें विदित है,है पारस्पर
चलो करें इसलिये प्रशंसा एक दूसरे की बढ़ चढ़ कर
कविता लेख कहानी में क्या कथ्य ? नहीं कुछ लेना देना
हर इक कविता "रश्मिरथी" है, हर किस्सा है "तोता मैना"
 
आज तुम्हारी विरुदावलियाँ मैं गाता हूँ बिन विराम के
कल मेरी जब करो प्रशंसा, आंधी बने सनसनाना तुम
 
उपमा अलंकार सब के सब सर को पीट लिया करते हैं
छन्द तुम्हारी कविताओं के आगे आ पानी भरते हैं
महाकाव्य औ’ खंडकाव्य सब रहते खड़े आन कर द्वारे
पड़े तुम्हारी दृष्टि और वे अपना सोया भाग्य संवारे
 
आज तुम्हारा भौंपा बन कर मैं जैसे गुणगान कर रहा
कल जब मेरी बात चले तो घुँघरू बने झनझनाना तुम

एक किरन प्रतिबिम्बित होकर मन वातायन सजा रही है

लगने लगें अजनबी तुमको जब घर की दीवारें अपने
सांझ भोर में दोपहरी में आंखों में तिरते हों सपने
अनायास ही वर्तमान जब चित्र सरीखा हो रह जाये
एक शब्द पर अटक अटक कर अधर लगें रह रह कर कँपने
तो शतरूपे ! विदित रहे यह मधुर प्रीत की इक कोयलिया
मन की शाखाओं पर आकर नई रागिनी सुना रही है
 
सांझ अकेली करती हो जब खिड़की के पल्लों से बातें
तारों को कर बिन्दु,खींचने लगती हो रेखायें रातें
छिटकी हुई धूप पत्तों से, सन्देसा लेकर आती हो
और हवा के झोंके लेकर आयें गंधों की बारातें
तो रति प्रतिलिपि ! यह संकुल हैपुष्प शरों के तरकस में से
एक किरन प्रतिबिम्बित होकर मन वातायन सजा रही है
 
दर्पण अपनी सुध बुध खोकर रूप निरखता ही रह जाये
पगतलियों को छूते पथ की धूल लगे चन्दन हो जाये
पत्तों की सरसर से उमड़े सारंगी की तान मनोहर
अपनी परछाईं भी लगता अपने से जैसे शरमाये
तो संदलिके! यह प्रमाण है उम्रसंधि की यह कस्तूरी 
इस पड़ाव को अपनी मोहक गंध लुटा कर सजा रही है

पीर की नई कहानियाँ


लिख रही है रोज ज़िन्दगी
पीर की नई कहानियाँ

कैनवस पे रह गये टँगे
रंगहीन एक चित्र की
अजनबी बना हुआ मिला
बालपन के एक मित्र की
रेत की तरह फ़िसल गई
हाथ में खिंची लकीर की
बँध के एक द्वार से रहा
भ्रम में खो गये फ़कीर की

चुन रही है रोज ही नई
सिन्धु तट पड़ी निशानियाँ

लिख रही है गीत से विलग
अन्तरे की अनकही व्यथा
रहजनी से गंध की ग्रसित
पुष्प की अव्यक्त इक कथा
होंठ की कगार से फ़िसल
बार बार शब्द जो गिरा
लिख रही है धूँढ़ते हुये
गुत्थियों में खो गया सिरा

कह गई लिखा अपूर्ण है
सांझ करती मेहरबानियाँ

मोड  पर जो राजमार्ग के
पांव रह गये रुके,डरे
रह गये पलक की कोर पर
अश्रु जो कभी नहीं झरे
रह गया सिमट जो मौन की
पुस्तकों में, एक गीत की
छार छार होके उड़ रही
दादा दादियों की रीत की

लिख रही हिसाब, लाभ बिन
बढ़ रही हैं रोज हानियाँ

नये अर्थ के प्रतिपादन में

समय शिला से टकरा टकरा
बिखर गये अन्तरे गीत के
शब्द हुये आवारा, बँधते नहीं
तनिक भी अनुशासन में
 
अक्षर अक्षर विद्रोही है
ले मशाल जलती हाथों में
दूर अधर की पगडंडी से
उलझा अर्थहीन बातों में
पंक्तिहीन उच्छंखल कोई
बायें जाता कोई दाय़ें
सुनी अनसुनी कर देते हैं
कोई कितना भी समझाये
 
कर बैठे दुश्मनी मात्राओं से
अपने मद में फूले
रहे पिरोते निष्ठायें पर
गीतों वाले सिंहासन में
 
अलंकार की बैसाखी पर
चलें लड़खड़ा कर उपमायें
जुड़ती नहीं तार से आकर
तथाकथित ये नई विधायें
समुचित विस्तारों में अक्षम
वाक्य रहे हैं टूट टूट कर
और भावना विधवाओं सी
रहे बिलखती फ़ूट फ़ूट कर
 
सतही समझ पूज लेती है
केवल उन लहरों की हलचल
जिनका गठबन्धन करता है
बस निवेश इक विज्ञापन में
 
गीत और व्याख्यानों में अब
अन्तर नहीं कसौटी करती
लगीं अस्मिता तलक दांव पर
शायद इसीलिये ही डरती
सत्य अधर की देहरी को भी
छूने से अब कतराता है
चाटुकारिता का कोहरा ही
अपनी सीमा फ़ैलाता है
 
मिले धरोहर में जितने भी
नियम उठा कर फ़ेंक दिये हैं
व्यस्त सभी हैं निज मतलब के
नये अर्थ के प्रतिपादन में

केवल पीर रहा बरसाता

अँगनाई में किसी राशि की जाकर ठहरे सूरज चाहे
कैलेन्डर निज  व्यवहारों में कोई अंतर नहीं दिखाता
चौघड़िये दिन के हों चाहे संध्या भोर निशा के हों या
सभी आँकड़े षड़यंत्री हैं, उत्तर नहीं भिन्न मिल पाता
 
सावन भादों क्वार पौष हो या मौसम हो कभी चैतिया
अम्बर  तो बिन बादल के भी केवल पीर रहा बरसाता
 
जितनी बार उगाईं मन ने अपनी क्यारी में मंजरियां
उतनी बार अंकुरित होते रहे नागफ़नियों के काँटे
नयनों के गंगाजल ने जिन पौधों को सींचा था प्रतिपल
उगी हुई विषबेलों ने वे एक एक कर कर के बाँटे
 
बीज मोतिया बेला के हों या गुलाब की रेपें कलमें
बागीचा पर आक धतूरा ही केवल वापिस लौटाता
 
गतियाँ हर इक बार घड़ी की छूते दृष्टि हुईं हैं द्रुत ही
इसीलिये हर बार प्राप्ति का पल पोरों से परे रह गया
पग के उठ पाने से पहले दिशा राह ने अपनी बदली
निर्णय का पल असमंजस में घिरा ह्रदय से दूर रह गया
 
यद्यपि भोर नित्य भर देती है संकल्पों से आंजुर को
बदला हुआ धूप का तेवर सहज सोख उसको ले जाता
 
ओढ़ी हुई अवनिकाओं से छुपता नहीं सत्य चेहरे का
मुस्कानें बतला देती हैं कितना पिया अश्रु का क्रन्दन
रहती हो अदृश्य भले ही नयनों से तरी पगडंडी
उसके चिह्न बता देती है विद्रुप हुई अधर की थिरकन
 
सरगम ने हर बार बिलम्बित करके ही लौटाया है सुर
और तार पर चढ़ने की कोशिश करते ही वह गिर जाता

वही प्रश्न दस्तक देते हैं

जिन प्रश्नों का उत्तर कोई मिला नहीं हैं कभी कहीं से
वही प्रश्न दस्तक देते हैं आज पुन: द्वारे पर आकर
 
किसने किसके लिये लगी थी कल के पट पर सांकल खोली
कौन खेलता गै हाथों की रेखाओं से आंख मिचौली
कहाँछुपे हैं इतिहासों में वर्णित स्वर्णमयी रजनी दिन
किधर वाटिकायें गूँजे है जिनमें प्रीत भरी बस बोली
 
यद्यपि ज्ञातन उत्तर का रथ मुडन सकेगा इन गलियों को 
बार बार कर रहीं प्रतीक्षा आँखें मोड्क्ष गली के जाकर 
 
क्या कारण था क्या कारण है परिवर्तन की नींद न टूटे 
किसने खींचे राज पथों पर ही क्यों आ बहुरंगी बूते
भला किसलिए सावन चलता रहा पुराणी ही लीकों पर 
कटते रहे एकलव्यों के ही क्यों कोई कहे अंगूठे 
 
कब से नियमावलिया  क्यों हम आँख मूड कर रहे अनुसरण 
कोई भेद नहीं बतला पाया है यह हमको समझा कर 
 
 
किये अनकिये प्रश्नों में ही दिवस निशा नित उलझे रहते .
क्यों विपरीत दिशाओं में ही गंधों वाले झोंके बहते 
क्यों लुटती हैं विकच प्रसूनों की पांखुर ही वन उपवन में 
क्यों कांटे भी नहीं सहायिकाओं पर जा कर सजाते रहते 
 
प्रश्नाचिहं की  झुकी कमर पर प्रश्नों का बोझा है भारी 
आशा यही कोई उत्तर आ बोझ तनिक जाए हल्का कर 
 

रोयें हम या मुस्कुराएँ

ज़िंदगी में हैं हजारों एक तो पहले व्यथाएं    
आपकी फिर बात सुन कर रोयें हम या मुस्कुराएँ 
 
भावना के प्रकरणों की पूर्व निर्धारित समस्या 
एक मन को छू रखें औ दूसरे से बच  निकलते 
एक के घर पर छिटकती चांदनी सी चंद  किरणें 
दूसरे को अग्नि देते दीप जब भी जल पिघलते 
हो नहीं पातीं सभी की एक जैसी मान्यताएं
 रोयें हम या मुस्कुराएँ 
 
कल्पना की जब उड़ानें बाँधती पूर्वाग्रही पर 
तो सहज विस्तार उनका एक मुट्ठी में सिमटता 
दृष्टि के ही कोण पर निर्भर रहा है दृश्य सारे
कौन उसको किस तरह से देखता है या समझता 
 
कौन से आकाश में हम पंख अपने फ़डफ़डाये 
रोयें हम या मुस्कुरायें
 
शब्दकोशों में नहीं सीमित रहा है ज्ञान केवल
माँगता है चेतना की सार्थकतायें निरन्तर
जो विनय सिखला नहीं सकती हुई विद्या निरर्थक
प्राण में पाषाण में करता यही बस एक अन्तर
 
शोर में इक भीड़ के सारंगियाँ कब तक बजायें
रोयें हम या मुस्कुरायें

भोर की अलगनी पे टँका रह गया

भोर की अलगनी पे टँका रह गया
कल उगा था दिवस सांझ के गाँव में
रात फिर से सफ़र में रुकी रहगयी
गिनते गिनते जो छाले पड़े पाँव में
 
चांदनी ने प्रहर ताकते रह गए 
उंगलियाँ थामने के लिए हाथ में 
दृश्य की सब दिशाएँ बदल चल पडी 
रुष्ट होते हुए बात ही बात में 
 
नभ की मंदाकिनी के परे गा रही
 एक नीहारिका लोरियां अनवरत 
पर किसी और धुन पे थिरकता हुआ 
आज को भूल कर दिन हुआ था विगत 

अधर की रंगत लेकर उगें सवेरे

हवा चाहती है आरक्त कपोलों को रह रह कर चूमे
अभिलाषित है उषा अधर की रंगत लेकर उगें सवेरे
दोपहरी आतुरा ओढ़ ले छिटकी हुई धूप चूनर से
लालायित है निशा तुम्हारे चिकुरों से ले सके अँधेरे
 
प्रतिपादित सब नियम भौतिकी के चाहें खुद टूट बिखरना
द्वार तुम्हारे रहना चाहे छोड़ गगन हर एक सितारा
 
उंगली की पोरों से बिखरी हुई हिना कचनार बन गई
प्रतिबिम्बित जब हुआ अलक्तक पग से तो गुलाब मुस्काये
पायल की रुनझुन से जागी बरखा लेले कर अँगड़ाई
वेणी थिरकी तो अम्बर में सावन के बादल घिर आये
 
खंजननयने, स्वयं प्रकृति भी चाहे तुमसे जुड़ कर रहना
पांव तुम्हारे छूना चाहे उमड़ी हुई नदी की धारा
 
कंगन जब करने लगता है हथफूलों से गुपचुप बातें
तब तब गूँजा करती जैसे सारंगी की धुन मतवाली
दृष्टि किरण किस समय तुम्हारी शिलाखंड को प्रतिमा कर दे
आतुरता से बाट निहारे ठिठकी हुई सांझ की लाली
 
ज्ञात तुम्हें हो दिशा दिशायें तुमसे ही पाने को आतुर
प्राची और प्रतीची ने तुमसे ही तो ले रूप सँवारा
 
गंधों को बोती क्यारी में धूप केसरी परिधानों की
चन्दन के वृक्षों पर जिससे आने लगती है तरुणाई
और हवाके नूपुर की खनकें जिससे उपजा करती हैं
शिल्पकार के स्वप्नों वाले तन की ही तो है परछाईं
 
कलासाधिके  ! देश काल की सीमाओं की रेख मिटाकर 
भाषाओं  के विविध चित्र को तुमने  ही है सदा उजारा 

भोज पत्र पर लिखी हुई सारी गाथायें

तुम्हें देख कर शब्द शब्द ने रह रह अपना किया  आकलन
लगे जोड़ने रूप तुम्हारे से वे अपनी परिभाषायें
 
रक्तिम अरुण पीत आभायें नतमस्तक हैं पास तुम्हारे
चिकुरों की रंगत से अपना मांग रहे परिचय अंधियारे
मंदिर में बजती घंटी में घुली हुई सारंगी की धुन
लालायित है मुखर कंठ का स्वर होकर के उन्हें संवारे
 
सदियों के दर्पण में अपने प्रतिबिम्बों को देख रही हैं
रूप प्रेम की भोज पत्र पर लिखी हुई सारी गाथायें
 
मृगी मीन नीरज की आशा दें प्रतिरूप तुम्हारे लोचन
मंथन से प्राकट्य मोहिनी तुमसे ही मांगे सम्मोहन
पारिजात कचनार  मोगरा जूही पुष्पराज सब सोचें
किसका भाग्य तुम्हारे तन को चूमे पाकर के अनुमोदन
 
स्वर्ण रजत के माणिक मुक्ता जड़े हुये सारे आभूषण
देह तुम्हारी आलिंगन में भर लेने की आस लगायें
 
पग की गति से बँधना चाहें सूरज चन्दा और सितारे
नक्षत्रों की दृष्टि तुम्हारी भॄकुटि भंगिमा को अनुसारे 
मौसम की थिरकन रहती है बँधकर चूनर के कोरों में
उडे झालरी तब ही वह भी करवट लेकर पाँव पसारे 
 
निशि वासर  संध्या, अरुणाई उषा  सब ही अभिलाषित हैं 
सामौ सारथी के कर से तुम हाथ बढ़ा  ले लो वल्गाएँ
--

सितम्बर का तीसरा सप्ताह

तीजे सप्ताह सितम्बर के  सूरज की गर्दन झुक जाती
तो तिरछी हुई भवों वाला गुस्सा ठडा होने लगता
दिन अकड़े हुये पसारे थे पांवों को सीमा के बाहर
उनका कद अपनी सीमा में वापिस आकर भरने लगता
 
अठखेली करते हुये पवन के झोंके दिशा बदलते हैं
उत्तर से उड़ी पतंगों की डोरी थामे आ जाते हैं
तो सिहरन से बजने लगती है जल तरंग मेरे तन में
अधरों के चुम्बन प्रथम मिलन के यादों में भर  जाते हैं
 
घर के बाहर पग रखते ही ठंडक में डूबे झोंके कुछ
मेरे गालों को हाथ बढ़ा कर हौले से छू लेते हैं
तो झंकृत होते स्पंदन से आवृतियां बढ़ती धड़कन की
तब  गुल्मोहर के तले हुये भुजबन्धन फिर जी लेते हैं
 
पानी में गिरे दूध जैसी धुंधली दोशाला को ओढ़े
अलसाई  भोर उबासी ले रह रह लेती है अँगड़ाई
घुलते हैं प्रथम आरती के स्वर जैसे सभी दिशाओं में
जीवित  हो कदम बढ़ाती है गति की फिर नूतन तरुणाई
 
आंखों के आगे उगे दिवस की खींची हुई रूपरेखा
के खाली खाली सब खाने  लगता खुद ही भर जाते हैं
तो साथ तुम्हारे जो बीते, उन सुखद पलों के स्वर्णचिह्न
संध्या तक की दीवारों पर बन भित्तिचित्र जड़ जाते हैं

गीतमय करने लगा हूँ

आपका ये तकाजा लिखूँ गीत मैं कुछ नई रीत के कुछ नये ढंग के
ज़िन्दगी की डगर में जो बिखरे पड़े, पर छुये ही नहीं जो गये रंग के
मैने केवल दिये शब्द हैं बस उन्हें सरगमों ने बिखेरा  जिन्हें ला इधर
कामना शारदा बीन को छोड़ कर राग छेड़े नये आज कुछ चंग पे
 
 
 
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था कहा तुमने मुझे यह ज़िन्दगी है इक कहानी
हर कड़ी जिसमें निरन्तर रह रही क्रम से अजानी
एक लेखक की कथानक के बिना चलती कलम सी
चार पल रुक, एक पल बहती नदी की बन रवानी
 
मैं तुम्हारे इस कथन की सत्यता स्वीकार करता
अनगढ़ी अपनी कहानी गीतमय करने लगा हूँ
 
चुन लिया अध्याय वह ही सामने जो आप आया
दे दिया स्वर बस उसी को, जो अधर ने गुनगुनाया
अक्षरों के शिल्प में बोकर समूची अस्मिता को
तुष्टि उसमें ढूँढ़ ली जो शब्द ने आ रूप पाया
 
जो टपकती है दुपहरी में पिघल कर व्योम पर से
या निशा में, मैं उसी से आँजुरी भरने लगा हूँ
 
रात की अंगड़ाईयां पुल बन गईं हैं जिन पलों का
आकलन करती रहीं आगत,विगत वाले कलों का
बुन रहे सपने धराशायी हुई हर कल्पना पर
हैं अपेक्षा जोड़ती ले बिम्ब चंचल बादलों का
 
ज्ञात होना अंकुरित नव पल्लवों का है जरूरी
इसलिये मैं आज पतझर की तरह झरने लगा हूँ
 
चेतना के अर्थ से क्या दूरियाँ अवचेतना की
मुस्कुराहट से रही कब दूरियाँ भी वेदना की
शाश्वतों से भंगुरों के मध्य में है भेद कितना
मौन से कितने परे हैं दूरियां संप्रेषणा की
 
देर तक छाया नहीं मिलती,  हवा की ओढ़नी से
मैं इसे स्वीकार करता धूप में तपने लगा हूँ-

रंग भरने से इनकार दिन कर गया

एक भ्रम में बिताते रहे ज़िंदगी
यह न चाहा कभी खुद को पहचानते 
 
मन के आकाश पर भोर से सांझ तक 
कल्पनाएँ नए चित्र रचती रहीं 
तूलिका की सहज थिरकनें थाम कर
कुछ अपेक्षाएं भी साथ बनती रहीं 
रंग भरने से इनकार दिन कर गया
सांझ के साथ धुंधली हुई रेख भी 
और मुरझा के झरती अपेक्षाओं को 
रात सीढी  उतरते रही देखती 
 
हम में निर्णय की क्षमताएं तो थी नहीं 
पर कसौटी स्वयं को रहे मानते 
 
चाहते हैं करें आकलन सत्य का 
बिम्ब दर्पण बने हम दिखाते रहें 
अपने पूर्वाग्रहों  से न होवें ग्रसित 
जो है जैसा  उसे वह बताते रहें 
किन्तु दीवार अपना अहम् बन गया 
जिसके साए में थी दृष्टि  धुंधला गई 
ज्ञान  के गर्व की एक मोटी परत 
निर्णयों पर गिरी धुल सी छा  गई 
 
स्वत्व अपना स्वयं हमने झुठला दिया
ओढ कर इक मुलम्मा चले शान से 
 
जब भी चाहा धरातल पे आयें उतर 
और फिर सत्य का आ  करें  सामना 
तर्क की नीतियों को चढा ताक पर 
कोशिशें कर करें खुद का पहचानना 
पर मुखौटे हमारे चढाये हुए
चाह कर भी न हमसे अलग हो सके 
अपनी जिद पाँव अंगद का बन के जमी 
ये ना संभव हुआ सूत भर हिल सके 
 
ढूँढते रात दिन कब वह आये घड़ी 
मुक्त हो पायें जब अपने अभिमान से 

गीत के फूल जो पाँव में आ गिरे


मैं प्रतीक्षा लिए अनवरत हूँ खडा 
पंथ के इक अजाने उसी मोड पर 
तुम गए थे हवाओं की उंगली पकड 
एक दिन जिस जगह पर मुझे छोड कर 
 
आस का दीप हर दिन जला फिर बुझा 
वर्त्तिका की मगर मांग सूनी रही 
आतुरा दृष्टि की भटकनें थरथरा
वक्त के साथ चल होती दूनी रही 
अटकलों के विहग मन के आकाश पर 
हर घड़ी पंख थे फ़डफ़डाते रहे 
मेघ के साथ सन्देश भेजे हुए 
धुप के साथ में लौट आते रहे 
 
जानता चाहते लौटना तुम इधर 
किन्तु संभव नहीं व्यूह कोई तोड़कर 
 
कल्पना के बनाता रहा चित्र, निज 
कैनवस पर दिवस रोज आता हुआ 
सांझ ढलते हुए, तीर बन कर चुभा 
रंग उनमें निराशा का भरता हुआ 
चांदनी रात की रश्मियाँ,बिजलीयाँ
बन के अंगनाई पे मन की गिरती रहीं 
सांवली बदलियाँ नैन के व्योम में 
मौसमों के बिना आके तिरती रहीं 
 
यह गणित आया मेरी समझ में नहीं 
कर, घटा भाग देखा गुणा जोड  कर 
 
प्यार मदिराई गति के पगों की तरह
डगमगाते हुए साथ चलता रहा 
वक्त दरजी बना, भावना के फ़टे
वस्त्र सींते  हुए नित्य छलता रहा 
देव की मूर्तियों से रहे दूर तुम
कक्ष में कैद हो मंदिरों में घिरे 
एक भी तुमने बढ कर उठाया नहीं
 गीत के फूल जो पाँव में आ गिरे 
 
भाग्य की छाँव भी स्पर्श हो न सकी
मुझसे आगे निकलता रहा होड कर 
 

व्याकरण के खोलते हो द्वार जिनसे

कल्पना के जिस क्षितिज से शब्द यह तुमने बटोरे
बाँध लाये सन्दली जिस वाटिका से यह झकोरे
कुछ पता उनका हमें भी मित्र बतलाऒ कृपा कर
रख सकें हम शब्द अपने इस तरह से फिर सजा कर
 
सीखना तो है बहुत पर कोष क्षमता का तनिक सा
धैर्य रख कर तुम हमें बस नित्य सिखलाते रहो ना.
 
कुंजियां वे व्याकरण के खोलते हो द्वार जिनसे
कूचियां वे घोलते हो शब्द में ला स्वर्ण जिनसे
अंश उनका दो हमें या दो तनिक परछाईं ही बस
बुन सकें हम भी जरा सा शब्द में कोई मधुर रस
 
ज्ञात तुमको ज्ञात हमको मन निरा बंजर हमारा
किन्तु बन कर धार नदिया की हमारे पर बहो ना
 
ला सहज मधुपर्क हर इक बात में तुम घोलते जो
सरगमें जिनमें पिरोकर शब्द तुम हो बोलते जो
बून्द इक, आरोह औ अवरोह दो थोड़ा हमें भी
पा सकें रज एक कण अभिव्यक्तियों की देहरी की
 
जानते यह    झोलियाँ    संकीर्ण हैं सारी हमारी 
पर हमारी प्राप्ति की लघुताओं    को थोडा सहो ना 
 
भावना के जिस घने वटवृक्ष की तुम छांव देते
नाव जिसको कल्पना के सिन्धु में  तुम नित्य खेते
वे हमारे परिचयों के सूत्र से भी जोड  दो अब
कर सकें सामीप्य उनका  हम तनिक तो प्राण ! अनुभव
 
पंथ है लम्बा दिशायें   हैं सभी    हमसे अजानी
बोध देने तुम हमारी     बाँह को आकर गहो ना

पृष्ठ उनके खोलते हैं

जानते हो मीत ! सुधियों की घनी अमराईयों में
याद के पाखी निरन्तर डाल पर आ बोलते हैं
रख दिया था ताक पर मन ने उठा जिन पुस्तकों को
फ़ड़फ़ड़ाकर पंख अपने, पृष्ठ उनके खोलते हैं
 
संधियो पर उम्र की, जो चित्र खींचे थे कमल पर
राह में जो चिह्न छोड़े  लड़खड़ाने से संभल कर
दृष्टि के गुलमोहरों ने रात दिन जो सूत काते
अनकहे अनुबन्ध की कुछ पूनियों को आप वट कर
 
पृष्ठ से रंगीन बीती सांझ की अंगड़ाईयों के
रंग लेकर फ़िर हवा की लहरियों में घोलते हैं
 
वे सुनहरे पल कि जब संकल्प था आकाश छू लें
कर सकें चरितार्थ गाथायें,बढ़ा पग नाप भू लें
कल्पना की दूरियों को मुट्ठियों में भर समेटें
इन्द्रधनुषों के हिंडोले पर हवा के साथ झूलें
 
मन उमंगों की कटी पाँखें निहारे मौन गुमसुम
खोज लेने को गगन जब वे परों को तोलते हैं
 
करवटें लेकर समय ने दृश्य कितनी बार बदले
चाहना थी आगतों का अनलिखा हर पृष्ठ पढ़ ले
मोड़ ले अनुकूल कर धाराओं का निर्बाध बहना
हर दिवस को फूल की पांखुर, निशा को ओस कर ले
 
कामनायें पत्र कदली के बने लहरायें जब जब
वे नियति के चक्र बन कर बेर के सम डोलते हैं

याद की कुछ खिड़कियाँ खोलें


चलो हम आज फिर से याद की कुछ खिड़कियाँ खोलें 
 
चलो देखें वही बस की प्रतीक्षा का सुनहरा पल 
जहां थी उड गई सहसा तुम्हारी चूनरी धानी 
गई  थी छू कपोलों को मेरे बन पंख तितली के 
कहा था कुछ,हुई मुश्किल वे सब बातें समझ पानी 
 
वही इक दृश्य सपना कर नयन में आँज  कर सो लें 
 
पलट कर पृष्ठ वे खोलें नदी के रेतिया तट पर 
लिखी थी पाँव के नख ने इबारत कोई धुंधली सी 
किया इंगित टहोके से मुझे छू कर ज़रा हौले 
बदन  पर तैरती अब भी छुअन उस एक उंगली की 
 
अधर फिर फिर यही कहते उसी अनुभूति के हो लें 
 
चलो फिर खींच लें हम कैनवस पर गुलमोहर वोही
उगा था जो कपोलों पर तुम्हारे, दृष्टि चुम्बन से
छिड़ी जो थरथराहट से अधर की, जल तरंगों सी
उसे हम जोड़ लें मन कह रहा है आज धड़कन से
 
इन्हें हम डोरियों में दृष्टि की फिर से चलो पो लें

तुम्हारे तन की गंध चूम आई है

बहकी हुई हवा से पूछा मैंने भेद लडखडाहट का 
तो बोली वह मीत ! तुम्हारे तन की गंध चूम आई है 
 
पुष्पवाटिका से अमराई तक की गलियाँ घूम घूम कर 
क्यारी क्यारी में मुस्काती कलियों का मुख चूम चूम कर 
बहती हुई नदी की धाराओं से बतियाते बतियाते 
संदल की शाखों  पर करते नृत्य मगन मन झूम झूम कर 
 
डलिया भर भर कर बिखेरते मग्न ह्रदय की मुदित उमंगें 
फगुनाहट की रंगबिरंगी चुनरिया फिर लहराई है 
 
धुआँ  अगरबत्ती का लेकर मंदिर की चौखट से आई 
फिर समेट लाई बांहों में गुलमोहर वाली अँगडाई 
पांखुर पांखुर से गुलाब की कचनारों की पी सुवास को 
लगी देखने अपनी छाया में फिर अपनी ही परछाईं 
 
परछाईं के नयनों में भी बिम्ब तुम्हारा ही देखा तो
 सम्मोहित हो रुकी लगा ज्यों सुधि बुधि  पूरी बिसराई है  
 
देहरी  पर आ छाप अधर की लगी छोडने वो मुस्काकर 
कमरे की दीवारें चूमी अपनी चुनरिया लहराकर 
झोंकों के गलहारों मॆं की बंद  कल्पनाॐ की छाया 
मंजरियों की जल तरंग पर अपनी पैंजनिया खनका कर  
 
अमराई में गाती कोयल के स्वर को आधार बना कर 
सारंगी से नए सुरों में,नई  रागिनी बजवाई  है 

जय जयति वीणापारिणी


जय जयति जय माँ शारदा जय जयति वीणापारिणी 
भाषा स्वरा जय अक्षरा ,जय श्वेत शतदल वासिनी 
जय मंत्र रूपा, वेद   रूपा जयति  स्वर व्यवहारिणी
माँ  पुस्तिका, माँ कंठ स्वर,मां रागमय सुर रागिनी 
 
वन्दे अनादि शक्ति पूंजा, ज्ञान अक्षय निधि नमो 
स्वाहा स्वधा मणि  मुक्त माला रूपिणी चितिसत  नमो 
मानस कमल की चेतना, कात्यायनी शक्ति नमो 
हे धवल वसना  श्वेत रूपा प्राण की प्रतिनिधि नमो 
 
इंगित तेरा संचार प्राणों का सकल जग में करे 
तेरे अधर की एक स्मित हर मेघ संकट का हरे 
तेरे वरद आशीष का कर छत्र जिसके सर तने
भवसिन्धु की गहराइयां वह पार पल भर में करे 
 
सुर पूजिता, देव स्तुता, हे यज्ञ की देवी नमो 
हे सर्जना , हे चेतना  हे भावना तत्सम नमो 
हे शेषवर्णित नित अशेषा, आदि की जननीनमो
हे कल्पना की, साधना की प्रेरणा नित नित नमो

बात हो चाहे कितनी पुरानी कहूँ

 
 
दीप बन कर नयन में जले जो सपन
आज तुमसे उन्हीं की कहानी कहूँ
पीर जो होंठ को अब तलक सी रही
बात उसकी उसी की जुबानी कहूँ
 
पोर की मेंहदियों ने छुये बिन कभी
बात गालों  पे लिख दी मचलते हुए
एक मौसम बिताया समूचा उसे
ध्यान देकर तनिक सा, समझते हुए
पर लिखी मध्य में शब्द के जो कथा
उसका वृत्तांत आया समझ में नहीं
यूँ लगा जितना अब तक समझ पढ़ सके
उससे दुगना उसी में छुपा है कहीं
 
कितनी गाथायें हैं,ग्रंथ कितने बने
जब कपोलों ने पाई निशानी कहूँ
 
एक चितवन छिटक ओढ़नी से जरा
द्वार नयनों के आ खटखटा कर गई
सांवरी बदलियों की थीं सारंगिया
पास आकत जिन्हें झनझना कर गई
कंठ का स्वर तनिक शब्द को ढालता
पूर्व इससे हवायें उड़ा ले गईं
कमसिनी गंध के मंद आभास सी
उंगलियां एक प्रतिमा छुआ  के गई
 
इस नये रूप में इक नये ढंग में
बात हो चाहे कितनी  पुरानी कहूँ
 
बिम्ब वे फिर सभी अजनबी हो गये
जुड़ न पाई कहीं कोई पहचान भी
एक अपनी कसक जो सदा संग थी
वो भी ऐसे मिली जैसे अनजान थी
टूट बिखरी हुई आरसी कोशिशें
कर थकी एक तो चित्र उपहार दे
तार टूटे हुए बोलने लग पड़ें
उंगलियां  ढूंढते वे  जो झंकार दे
 
एक सूनी प्रतीक्षा लिये आँख में
किस तरह बीती सारी जवानी कहूँ

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...