केवल पीर रहा बरसाता

अँगनाई में किसी राशि की जाकर ठहरे सूरज चाहे
कैलेन्डर निज  व्यवहारों में कोई अंतर नहीं दिखाता
चौघड़िये दिन के हों चाहे संध्या भोर निशा के हों या
सभी आँकड़े षड़यंत्री हैं, उत्तर नहीं भिन्न मिल पाता
 
सावन भादों क्वार पौष हो या मौसम हो कभी चैतिया
अम्बर  तो बिन बादल के भी केवल पीर रहा बरसाता
 
जितनी बार उगाईं मन ने अपनी क्यारी में मंजरियां
उतनी बार अंकुरित होते रहे नागफ़नियों के काँटे
नयनों के गंगाजल ने जिन पौधों को सींचा था प्रतिपल
उगी हुई विषबेलों ने वे एक एक कर कर के बाँटे
 
बीज मोतिया बेला के हों या गुलाब की रेपें कलमें
बागीचा पर आक धतूरा ही केवल वापिस लौटाता
 
गतियाँ हर इक बार घड़ी की छूते दृष्टि हुईं हैं द्रुत ही
इसीलिये हर बार प्राप्ति का पल पोरों से परे रह गया
पग के उठ पाने से पहले दिशा राह ने अपनी बदली
निर्णय का पल असमंजस में घिरा ह्रदय से दूर रह गया
 
यद्यपि भोर नित्य भर देती है संकल्पों से आंजुर को
बदला हुआ धूप का तेवर सहज सोख उसको ले जाता
 
ओढ़ी हुई अवनिकाओं से छुपता नहीं सत्य चेहरे का
मुस्कानें बतला देती हैं कितना पिया अश्रु का क्रन्दन
रहती हो अदृश्य भले ही नयनों से तरी पगडंडी
उसके चिह्न बता देती है विद्रुप हुई अधर की थिरकन
 
सरगम ने हर बार बिलम्बित करके ही लौटाया है सुर
और तार पर चढ़ने की कोशिश करते ही वह गिर जाता

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

समय तो अपनी मन्थर गति से चला जाता है, हम ही उसमें कोष्ठक लगाते रहते हैं, सप्ताह के, माह के, वर्ष के।

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