रोशनी के बदलते रहे अर्थ भी

 
 
नित्य हम एक सूने पड़े पृष्ठ पर
दृष्टि अपनी निरन्तर गड़ाते रहे
केन्द्र पर चक्र के रह गये हम खड़े
दिन परिधि थाम हमको चिढ़ाते रहे
 
रश्मियां छटपटाती धुरी पर रहीं
पूर्व आने के पल दूर जाते रहे
 
गीत के गांव में द्वार खुलते नहीं
खटखटाते हुए उंगलियाँ थक गईं
लेखनी का समन्दर लगा चुक गया
भावनायें उमड़ती हुई रुक गईं
आ प्रतीची भी प्राची में घुलती रही
रोशनी के बदलते रहे अर्थ भी
बाँह में एक पल थामने के लिये
जितने उपक्रम किये,वे रहे च्यर्थ ही
 
सूर्य के अर्घ्य को जल कलश जो भरे
द्वार मावस के उनको चढ़ाते रहे
 
रात के पृष्ठ पर तारकों ने लिखी
जो कहानी,समझ वो नहीं आ सकी
नीड़ को छोड़ कर, आई फिर लौट कर
राग गौरेय्याअ कोई नहीं गा सकी
चाँद ने डाल घूँघट,छिपा चाँदनी,
पालकी रात की रिक्त कर दी विदा
किन्तु वह रुक गई भोर के द्वार पर
सोचते सब रहे, ये भला क्या हुआ
 
अंशुमाली स्वयं बीज बोते हुए
ज्योत्सना क्यारियों से चुराते रहे
 
बादलों से ढकीं धूप की कोंपलें
आवरण को हटा मुस्कुराई नहीं
शाख पर पेंजनी ओस की थी टँगी
आतुरा तो रही, झनझनाई नहीं
पंथ ने कोई पाथेय बाँधा नहीं
नीड़ खोले बिना द्वार सोता रहा
और तय था घटित जो भी होना हुआ
हम अपरिचित रहे और होता रहा
 
दीप जल बुझ गये थालियों में सजे
दृष्टि हम अपनी उनसे बचाते रहे
 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कहा, कितना कुछ बदल जाता है, उन्हीं परिवेशों में, काल भी अचम्भित हो जाता है।

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