अनुमति मिले तुम्हारी तो मैं


अनुमति मिले तुम्हारी तो मैं शब्दों को सीमा के आगे
सन्दर्भों में ले कर जाऊं, तुम पर नया गीत लिख डालूं

जुड़ा चेतना का हर इक क्षण रक्त-पीत वर्णी आभा से
ज्वालामुखियों के लावे सी तन की कांति बिखेरे जिसको
अनुबन्धों की जड़ें अंकुरित हो जाती जब अकस्मात ही
मैं अन्वेषित करूं आज उन भावों की कुछ व्याख्याओं को

सौगन्धें जोड़ा करती हैं मानस के जो कच्चे धागे
उनको मैं जंजीर बना कर एक नई ही रीत बना लूँ

पुष्प, ओस, पुरबाई मधुबन या बहती नदिया का धारे
इन सबके   आगे भी तो हैं उपमायें जो रहीं अनछुई
सोच रहा विस्तार बढ़ा दूं आज लेखनी की थिरकन का
और शिल्प दूं उसको कह ना पाई जो कुछ घड़ी संशयी

चलते हुये वक्त की सुईयों की टिक टिक की पदचापों को
गतिमय हुआ निरन्तर अपने जीवन का संगीत बना लूं

दोपहरी हो या कि रात का ढलता हुआ आखिरी हो पल
एकाकीपन को परिभाषित करूं मिलन की कुछ घड़ियों में
सूनेपन के सन्नाटे को दर्पण कर के कभी निहारूँ
अनगिन चित्र नजर आते हैं बिखराई इन वल्लरियों में

अर्थ शब्द के बदला करते करवट लेते हुये समय मे

इसीलिये मं आज अपरिचय को ही मन की प्रीत बना लूं

1 comment:

sameer said...

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