आज भोर की पहली किरण ने हौले से आकर कहा कि आज गीत कलश पर पिछले ११ वर्षों से छलक रही पंखुरियों में सात सौवीं पंखुरी के झड़ने का अवसर आ गया है तो इस कलम को गति देने वाली शक्ति के श्री चरणों में अर्पित यह सातसौवीं पुष्पांजलि:-
सहस नाम तुम मैं अनाम हूँ तुम विस्तार और मैं इक कण
तुम हो आदि, आदि केकारण, मेरा जीवन केवल इक क्षण
शक्तिपुंज तुम अन्तर्यामी तुम हर गति के हो निर्धारक
सिरजन भी तुम तुम ही पालक और तुम्ही तो हो संहारक
तुम से मांगू मैं क्या मांगू तुम ही इच्छा तुम ही वर हो
मैं हूँ बंदी जनम मरण का, केवलतुम ही तो सत्वर हो
तुम रागों में बोते सरगम, मैं अधरों का बोल अप्रस्फ़ुटित
मैं बस एक झपक पलकों की, तुम हो समयसिंधु का कारण
नभ की अनगिन मंदाकिनियाँ निहित तुम्हारे रोम रोम में
कोटि चन्द्रमा लक्ष दिवाकर तुम रचते हो नित्य व्योम में
मैं प्रकाश के इक अणु जैसा, तुम ज्योतिर्मय ज्योति अकल्पित
मैं इक निमिष, खरब मन्वन्तर का है इतिहास तुम्ही में संचित
तुम अशेष हो परे कल्पना की अकल्पनी सीमाओं के
मैं हूँ हारी थकन सांझ की तुम अविराम सिरजना स्फ़ुरण
तुम बसते हो हर प्रतिमा में, मैं धुंधली दर्पण की छाया
तुम गति हो सूरज के रथ सी, मैं पाषाण पड़ा अलसाया
तुम से ही तो चिति में चिति है, तुम प्राणों में धड़का स्पंदन
शब्द तुम ही हो, स्वर भी तुम ही, कैसे करूँ तुम्हारा वन्दन
कर्मों का उद्गम भी तुम ही, तुम ही फ़ल के उत्तरदायी
तुम अनन्त के अथाह सिन्धु हो, मैं पग की सिकता का इक कण