किसो अधर पर नहीं जड़ा पिघले सावन का चुम्बन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन
एक बार फिर लौटी नजरे, खाली हाथ डगर से
दिन गुजरे बैठा न कोई पाखी आ कर छत पे
रोता रहा पपीहे का स्वर भटका हुआ हवा में
लौटा गया दिवस आशाएं तोड़ तोड़ संध्या में
दिन गुजरे बैठा न कोई पाखी आ कर छत पे
रोता रहा पपीहे का स्वर भटका हुआ हवा में
लौटा गया दिवस आशाएं तोड़ तोड़ संध्या में
किसी अधर पर नहीं रुका पल को आकर भी स्पंदन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन
दिशाहीन भटके संदेशों के कपोत सब नभ में
रहा बदलता एक प्रतीक्षा का पल भी परवत में
मन की सिकता बिछी रही बन नदियातट की रेती
जिस पर आकर बांसुरिया की धुन ना कोई लेटी
रहा बदलता एक प्रतीक्षा का पल भी परवत में
मन की सिकता बिछी रही बन नदियातट की रेती
जिस पर आकर बांसुरिया की धुन ना कोई लेटी
किसी अधर पर मढ़ा नहीं सांसों ने आ चन्दन वन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन
रही फडकती किसी परस को तरसी हुईभुजाये
थमी न पल भर रही दौड़ती नस नस में शम्पाये
सुलगा करी तले तरुवर के जन्मांतर की कसमें
विधना पर दोषारोपण ही रह पाया बस , बस में
थमी न पल भर रही दौड़ती नस नस में शम्पाये
सुलगा करी तले तरुवर के जन्मांतर की कसमें
विधना पर दोषारोपण ही रह पाया बस , बस में
किसी अधर पर नहीं गिरी अमृत कलसी की छलकन
सूने पनघट को क्या कहती पायलिया की रुनझुन
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