प्रश्न छेड़े ही नही


 प्रश्न छेड़े ही नही बस जुड़ गये सम्बन्ध यूं ही
ज़िन्दगी के ज़िन्दगी से बन गये अ​नुबंध यूं ही

 एक अनजानी डगर पर पाँव यो ही रुक गए थे
और नयनो के पटल  पर रुक गए कुछ दृश्य आकर
प्रश्न की सीमाओं से औ तर्क से होकर परे ही
बन गए सहसा भविष्यत आप ही वे अचकचाकर

पूर्व इसके चल रहे थे पाँव तो स्वच्छन्द यूं ही
प्रश्न छेड़े ह नहीं बस जुड़ गए सम्बन्ध यूं ही ​

दर्पणो में जो बने प्रतिबिम्ब थे सब ही अजाने 
और धागे शेष थे सन्दर्भ के टूटे हुये ही
प्रश्न नजरो में बसे थे ताकते रहते क्षितिज को
उत्तरो के मेघ लेकिन रह गए रूठे हुए ही

प्रश्न छेड़े ही नहीं कब स्वाति की बूंदे झरेंगी
क्यारियों के पुष्प में बस उग गए मकरंद यूं ही

भावना  ने बुन दिया जो प्रेम का प्रारूप इक पल
वो हृदय के शैल पर इक लेख बन कर लिख गया था
कैनवास को ला निरंतर इंद्रधनु ने रंग सौपे
पर अपरिवर्तित रहा जो चित्र मन पर बन गया था

ना ही मंत्रोच्चार न ही यज्ञ की साक्षी रही थी
जन्म की जन्मान्तरों की खा गए सौगंध यूं ही 

तुम कहो तो


तुम कहो तो  होठ पर जड़ दूं तुम्हारे एक चुम्बन
दृष्टि में भर कर सुधाये प्रीत की तुमको पिला दूं
मनचली पुरबाईयों
​ ​
 की चुनरी पर नाम लिख कर
इक
​ ​
तुम्हारा, तुम कहो तो गंध की सरगम बजा दूं
तुम कहो तो
 
सोचता हूँ मैं क्षितिज पर ले हथैली की हिनाएँ
तुम कहो तो खींच दूं कुछ आज नूतन अल्पनायें
और लेकर तारकों की गोद में पलते सपन को
कूचियों से मैं उकेरूं कुछ अकल्पित कल्पनाये
तुम कहो तो 

पाँव में रंग दूं अलक्तक भोर की अरुणाईयों
​ ​
 का
राग भर दूं श्वास में ला, गूंजती शहनाइयों का
धार की मंथर गति को जोड़ दूं पगचाप से मैं
और फिर उल्लास भर दूं बौरती अमराइयों का
तुम कहो तो

मांग में कचनार की कुछ अधखिली कलियाँ सजाऊँ
मोतिया बन कर तुम्हारी वेंणियो में झूल जाऊं
 चूम लूँ कोमल हथेली बन हिना का एक बूटा
और फिर भुजपाश में लेकर तुम्हें कविता सुनाऊं
तुम कहो तो 

पहने बस सन्नाटा

आते जाते झोंको से
करती है दुआ सलाम
आस टंकी द्वारे पर पूछे
रह रह बस इक नाम्

स्वप्न सजा नयनो का आगन
पहने बस सन्नाटा
उजड़ी हुई राह पर कोई
कदम नही रख पाता
लौटी है हर बार मोड़ से
ही कजरारी शाम

बाट जोहते हरकारे की
दृष्टि हुई धुंधली
एक चित्र पर रही अटक कर
आंखों की पुतली
कान लगे मुंडेरी पर आ
कौआ बोले कांव

टंके चित्र कमरे में, बीते
कितने बरस बुहार
धूमिल हुई प्रतीक्षा के
रंगों में धूल दीवार
गुमसुम रहती चौबारे मे
खड़े नीम 
​की 
 छांव

एक बरस के बाद आज फिर
आया मां का  दिन
किसे बताये कैसे काटे 
गिन गिन कर पल छिन
पीर हिया की हरे तनिक भी
मिली नहीं वो बाम 

बीत रही दिन रात ज़िन्दगी

किसी अधलिखे छंद सरीखी
तितर बितर यादो को लेकर
बिना बहर के कही गजल सी
बीत रही दिन रात ज़िन्दगी

आपा
​ धापी और उधेड़-बुन
अफ़रा तफ़री सांझ सवेरे
पता नहीं दिन कब उगता है
कब आकर के घिरे अंधेरे
आफ़िस के प्रोजेक्टों से ले
घर के राशन की शापिंग तक
बिना बैंड बाजे के चढ़ती
ज्यों कोई बारात ज़िन्दगी

कुरता, शर्ट
​,​
 शेरवानी हो
या हो जीन्स और इक जैकिट
लंच रेस्तरां में करना  है
या घर से ले जाना पैकिट
वीकएंड के प्रोग्रामो की
सूची में उलझे मनडे से
चक्कर घिन्नी बनी हुई है
खड़ी हुई  फुटपाथ ज़िन्दगी

किसका फोन नहीं आता है
मिला कौन न एक बरस से
किसने आव भगत अच्छी की
किसके घर से लौटे भूखे 
कब अगला सम्मलेन होगा 
और कौन क्या क्या लायेगा
इन आधारहीन प्रश्नों में
उलझ रही बेबात ज़िन्दगी 

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...