मौसम की गलियारों में बिखरा अब सूनापन है
धूप जवानी
की
सीढ़ी चढ़ हो आवारा घूमे
तड़के उठ कर ढली सांझ तक चूनर को लहराये
ताप रूप का अपने बरसा, करती दिन आंदोलित
मुक्त कंठ से पंचम सुर में अपनी स्तुतियाँ गाये
बादल के टुकड़ों से नभ की बढ़ी हुई अनबन है
पनघट ने कर लिया पलायन कहीं दूसरे गाँव
तरुवर दृश्य देखते, लज्जित निज छाहों में सिम
टे
चौपालो ने दरवेशों को कहा
अ
वांछित कल ही
तले नीम के खड़ी दुपहरी बस एकांत लपेटे
सन्नाटे की मौन स्वरों में गूँज रही रुनझुन हे
दी उतार रख हरी चूड़ियां, दूब हुई बादामी
पिछवाड़े की बगिया का पथ भूली सोनचिरैया
प्यास लिपस्टिक बनी हुई होठों का साथ न छोड़े
शाख शाख पर निर्जनता ही करती ता ता थैया
तन पर मन पर अलसाएपन का
आ
जकड़ा बंधन है
1 comment:
waah bahut khoob behtareen rachna
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