बड़ी दूर का सदेशा इ

बड़ी  दूर का सदेशा इक बाँसुरिया की टेर पकड़ कर
गिरती हुई ओस की गति से पुरबा के संग बहता आया 

​गंधों की मचली लहरी की लहर लहर में घुला हुआ सा 
सावन की पहली फुहार में भीग भीग कर धुला हुआ सा  ​
क्षिति के सिरे चमकती सोनहली किरणों की आभायें ले 
खोल सके मन का वातायन, इस निश्चय पर तुला हुआ सा 

गलियारे   के   द्वार   बंद थे, पहरे लगे हुए राहों में 
फिर भी तोड़ सभी बाधाएं धीमे से आँगन में आया 

संदेशों में गुंथी हुई थी मन की कल्पित अभिलाषाएं
अक्षर अक्षर में संचित थी युगों युगों कु प्रेम कथाए
वासवदत्ता और उदयन की, साथ साथ नल दमयंती की
साम्राज्यों की रूप प्रेम के करता आ असीम सीमाएं

जल तरंग के आरोहों के अवरोहो के मध्य कांपती
उस ध्वनि की कोमलता में लिपटा लाकर संदेश सुनाया

 बड़ी दूर का संदेशा वह आया था बिन संबोधन के
और अंत में हस्ताक्षर भी अंकित नही किसी प्रेषक के 
क्या संदेशा मेरे  लिए है या फिर किसी और का भटका
उठे अचानक प्रश्न अनगिनत, एक एक कर रह रह कर के

बड़ी दूर का संदेशा।    यह देश काल की सीमाओं से
परे ,रहा है किसका, किसकी खातिर है ये समझ न आया
 

अकेले उतने हैं हम

जितनी संचारों की सुविधा बढी, अकेले उतने हैं हम
केवल साथ दिया करते है अपने ही इक मुट्ठी
​ भर​
  गम 

राजमार्ग पर दौड़ रही है उद्वेलित बेतार तरंगें
पगडंडी पर अंतर्जाल लगाये बैठा अपने डेरे
हाथों में मोबाइल लेकर घूम रहा हर इक यायावर
लेकिन फिर भी एकाकीपन रहता है तन मन को घेरे

​घँटी  तो बजती है​ पर आवाज़ न कोई दिल को छूती 
मन मरुथल की अंगनाई मे दिखते अपनेपन के बस  भ्रम 

हरकारे के कांधे वाली झोली रिक्त रहा करती है
मेघदूत के पंथ इधर से मीलो दूर कही मुड़ जाते
पंख पसारे नही कबूतर कोई भी अब नभ में जाकर
बोतल के संदेशे लहरों की उंगली को थाम
​ ​
 न पाए

दुहराना
​ ​
 चाहा
​ ​
 अतीत के साधन आज  नई दुनिया में
असफल होकर बिखर गए  पर सारे के सारे
​ ही ​
 उद्यम 

बडी दूर का संदेशा हो या फिर कोई
​ कही​
 निकट का 
सुबह
​ उगी 
 जो आस टूट कर बिखर गई संध्या के ढलते
टेक्स्ट फेसबुक ट्विटर फोन ईमेल सभी पर बाढ़ उमड़ती
लेकिन कोई एक नही है जिसको हम अपना कह सकते

संचारों के उमड़ रहे  इन  बेतरतीबी  सैलाबों  में
सब कुछ बह जाता है, रहती केवल सन्नाटे की सरगम

हार है या जीत मेरी

 ज़िन्दगी ने जो दिया वह हार है या जीत मेरी
जानता हूँ मैं नही, स्वीकार करता सिर झुकाकर

आकलन आधार है बस दृष्टिकोणों के सिरे का
जीत को वे हार समझेंहार को जयश्री बना दें
एक ही परिणाम के दो अर्थ जब भी है निकलत
ये जरूरी है उन्हें तबहम स्वयं निस्पृह बता दें

सौंपती है ज़िन्दगी वरदान ही तो आजुरी में
ये मेरा अधिकार उनको रख सकूं कैसे सजाकर

हार दिखती सामनेही जीत का आधार होती
ठोकरों ने ही सिखाया पग संभल रखना डगर में
राह की उलझन उगाती  नीड के अंकुर हृदय में
और देती है नए  संकल्प  के  पाथेय  कर में 

मजिलो की दूरियां  का संकुचित  होना सुनिश्चित
देर तब तक है रखू मैं  पांव को  अपने उठाकर 

हार हो या जीत हो यह तो भविष्यत ही  बताये
कर्म पर अधिकार अपना फ़ल प्रयासों पर टिका है
शत  युगों का ज्ञान। अर्जित यह बनाता संस्कृतियां
विश्व  की हर एक भाषा की किताबों में लिखा है

हार हो या जीत, दोनों शब्द हैं ! शाश्वत नहीं है

एक इंगित ही समय का, अर्थ बदले मुस्कुराकर

आओ बैठें बात करें

आओ बैठें बात करें

बहुत हो चुकी कविता गज़लें
काटी राजनीति की फ़सलें
कुछ पल आज चैन से कट लें
छेड़ विगत का अम्बर, यादों की मीठी बरसात करें

चक्करघिन्नी बने घूमते
कोई अनबुझी प्यास चूमते
बीत रहे हैं  दिवस टूटते
करें दुपहरी सांझ अलस की, सपनों वाली रात करें

आज फ़ेसबुक पीछे छोड़ें
और ट्विटर से निज मुख मोड़ें
व्हाट्सएप्प का बन्धन तोड़ें
और साथ अपने जीवन को, हम अपनी सौगात करें

आओ बैठें बात करें

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...