चलें ओ बावले मन अब किसी अनजान बस्ती में
जहां अनुराग पलता हो, समन्वय से गले मिलकर
प्रतीक्षित दग्ध होकर तू रहेगा और अबकितना
अकल्पित द्धेष के झोंके निरंतर आये झुलसाते
उगी है राजपथ पर नित नई इर्ष्याओं की बेलें
जिधर भी देखता है तू घने कोहरे नजर आते
चलें चल छोड़ दें ये घर, बनें फिर आज यायावर
बनाएं कुछ नए रिश्ते किसी आलाव पर रुककर
बिखर कर रह गई साधें जिन्हें बरसों संवारा था
रहे वसुधा कुटुंबम के न अब अवशेष भी बाकी
नसंध्या सुरमई होती, न आती भोर अरुणाती
निरंतर पीर की मदिरा उंडेले जा रही साकी
चलें चल मन अरण्यों के उसी बस एक प्रांगण में
जहाँ संवरी थी संस्कृतियां, श्रुती में होंठ पर चढ़ कर
बनाये चल नई बस्ती जहां अनुराग पलता हो
क्लीसों, मस्जिदों, मंदिर, मुहल्ले में औ गलियों में
जहां पर बदलियां घिर कर सुधामय प्रेम बरसाती
जहां सद्भाव की गंधे, विकसती आप कलियों में
चलें चल आज दें दस्तक सुनहरे द्वार पर कल के
जहां अनुराग छाये हर दिशा में गंध सा उड़कर
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