बदल देता दिशायें

पांव गतिमय, बढ़ रहीं हैं दूरियाँ गंतव्य से पर
हर कदम पर कोई रह रह कर बदल देता दिशायें
 
भोर का निश्चय थमाता है 
​ सजा ​
पाथेय जितना
दोपहर की सीढियाँ चढ़ते हुये वह बीत जाता
सांझ की परछाईयां छू नीड़ की दहलीज पायें
पूर्व इसके ही, लिये संकल्प का घट रीत जाता
 
इस डगर पर हर पथिक है सहस गाथा अरब वाली
हम अधूरी इक कहानी फ़िर भला किसको सुनायें
 
दूर कितना चल चुके अब तक, पता चलता नहीं है
राह सूनी पर
​, ​
नहीं  पग्चिह्न कोई शेष रहता
लौट आती दृष्टि रह रह कर क्षितिज को खटखटाकर
शून्य का उमड़ा हुआ झोंका महज इक साथ 
​बहता 
 
पंथ ने दी थी कभी सौगंध कोई, याद इतना
किन्तु सारे सूत्र धूमिल, फिर उसे कैसे निभायें
 
है कहां कोई चले जो साथ बन सहचर दिवस भर
पूछती आशा सितारों की गली में अचकचाकर
साथ लेकर लौटती 
​आ​
भास सा आश्वासनों का
रश्मियां जो सौंप देती हैं निरन्तर जगमगाकर
 
हर घड़ी होते समर्पण का निशाचर जानता है
मोड़ पर संभव उठे पग आज शायद हार जायें

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